स्त्री
स् त्री के लिए प्रेम का मतलब होता है सब कुछ मिला कर एक ही में केंद्रित कर देना फिर स्त्री की हर बात, हर सोच, हर चाह उसी एक केंद्र के चारों तरफ़ घूमती रहती है । शायर स्त्री को शमा और पुरुष को परवाना कहते हैं लेकिन सच्चाई तो यह है स्त्री ही परवाना है वो जिसे प्रेम करती है उसी में समा जाना चाहती है चाहे उसका ख़ुद का अस्तित्व ही क्यों ना ख़त्म हो जाए वो उसी के अस्तित्व में मिल जाना चाहती है । स्त्री का प्रेम बहुत हद तक मान, अपमान, अपेक्षा, उपेक्षा से परे होता है उसका क्रोध उसकी चिड़चिड़ाहट भी तभी प्रकट होती है जब उसे प्रेम के बदले प्रेम ना मिले वो कम प्रेम में ख़ुश रह सकती है लेकिन उसे प्रेम के बदले प्रेम चाहिए । स्त्री तब तक सब कुछ सहन कर लेती है जब तक उसे विश्वास हो की वो जिसे चाहती है वो भी उसे ही प्रेम करता है जो स्त्री परस्पर प्रेम में होती है वो एक गहरी नींद में होती है और सब कुछ स्वप्न होता है वो इसी स्वप्न में रहना चाहती हमेशा हमेशा के लिए । वो जिसे चाहती है सिर्फ़ उसी के साथ मारते दम तक उसी की हो कर रहना चाहती है । और पुरुष के लिए प्रेम का मतलब है इकछाओं का ढेर, उसी ढेर में क