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घिनौना पुरुषवाद !----------------------हे भगवान, इस आदमी को इसकी पत्नी कैसे झेलती होगी ?उस आदमी से मिलने के बाद यह बात ज़हन से जा ही नहीं रही.जितनी देर वह मेरे साथ रहा.. लगा कि कब चला जाए. उसके साथ एक क्षण गुजारना घंटों के बराबर था.बीते पखवाड़ा कुछ ऐसे लोगों से मिलना हुआ जिनके बाबत मेरा यह विचार था कि वे ठीक-ठाक इंसान हैं. मगर लंबी, अनौपचारिक भेंट ने उन्हें पूरा उजागर कर दिया. इत्तफाकन वे 'ड्रंक' थे और असल रंगत में थे. लिहाजा उनकी बातों से उनके सब ना-मालूम राज़ अफ़शां हुए- पैसा कमाने की लपलपाहट, पाए पैसे की गर्राहट, ढलती उम्र के रोग, किरदार के घिनौने किस्से और स्त्री के प्रति विचार.व्यक्ति वे अलग-अलग थे मगर एक बात समान थी कि उनके साथ कुछ देर रहना भी किसी नरक से कम न था.लिहाजा यह विचार स्वाभाविक ही कौधा कि 'जिस घर में यह रहते हैं उस घर के लोग इन्हें कैसे झेलते होंगे.. विशेषकर पत्नी' जिसे न केवल ऐसे खुचड़ आदमी के साथ रहना है बल्कि शयनकक्ष भी साझा करना है.मैं अक्सर ही यह सोचता था कि भारत में स्त्रियां, मध्य-वय आते-आते इतनी बीमार क्यों हो जाती हैं जबकि अधिकतर तो कोई नशा या व्यसन भी नहीं करतीं.मगर इन पुरुषों से मिलकर इस प्रश्न का उत्तर मिला कि महिलाओं की बीमारी का सबसे बड़ा कारण है.. उनके जीवन में आया- दुसह्य पुरुष.भारत में ज्यादातर पुरुष बहुत गंदे तरीके से रहते हैं.मुंह से तंबाकू ,गुटखा,शराब की दुर्गंध, धृष्ट मज़ाक़, छिछोरी फब्तियां. अधिकतर तो अपनी देह को भी बहुत बेढब और गंदा रखते हैं. स्त्री ऐसे पुरुष को जीवन भर झेलती है. तिस पर सामाजिक दबाव ऐसा कि,इसी आदमी के लिए तीज भी रखती है और दुनिया के सामने सफल दांपत्य की नुमाइश भी करती है.परिवार की मर्यादा बनाए रखने का दबाव ऐसा है कि अपने नपुंसक, व्याधि ग्रस्त पति को कामदेव का अवतार बताती हैं... और अगर भूले से अगर कोई स्त्री, सत्य कहने का साहस करती है.. तो सबसे पहले दूसरी स्त्री ही उसके विरोध में आ खड़ी होती है.साल दर साल इस दमघोंटू वातावरण में रहते रहते वह मानसिक रूप से टूट जाती है. (भावनात्मक रूप से तो जाने कब की टूट चुकी होती है.) देह और मन की यह टूटन आख़िरकार उसके शरीर पर व्याधियों के रूप में प्रकट होने लगती है जिसका दोष भी उसके ही सर मढ़ दिया जाता है.और पुरुष का गुनाह कभी प्रकट नहीं होता.स्त्री स्वयं ही अपने पुरुष के सब दोष छुपाती है.बहन, अपने दुष्ट भाई के पक्ष में सदैव खड़ी दिखती है.यही प्रश्रय वह गिज़ा हैं जिन्हें खाकर पुरुषवाद का विकराल रावण खड़ा हो जाता है.फिर यही सब ओर से समर्थित पुरुष, घर में जोर-जोर से बात करता है, दस जगह गुटखा खाकर थूकता है, महिलाओं बच्चों की उपस्थिति में गालियां बकता है, भरी सड़क पर बेशर्मी से पेशाब करता है.आती-जाती हर स्त्री को भोग वस्तु की तरह देखता है.बेहयाई के अखाड़े में पुरुष को वाक-ओवर है. कोई उसके विरोध में खड़ा नहीं होता.मेरे कई मित्र बड़े दंभ से यह कहते हैं कि मैं तो अपने घर में पानी का गिलास तक नहीं उठाता.चिल्लाकर बात करना, खाना इधर-उधर गिरा देना, चलते में चप्पलों की चटचट आवाज करना, स्त्री की कही बात को अनसुनी करना...ऐसी छोटी छोटी हज़ार बातें हैं, जिन्हें हम पुरुष का सामान्य बिहेवियर मानते हैं, जबकि इन सब के पीछे कुंठित पुरुषवाद और स्त्री दमन का पूरा मनोविज्ञान निहित है.चार पैसा कमाने की तो धौस से वह पत्नी और बच्चों को दबा कर रखता है.स्वाभाविक ही है कि जिस पैसे के दम पर उसकी सत्ता कायम है उसमें बढ़ोतरी के लिए वह पाप की कमाई भी करता है, क्योंकि उसे पता है जितना अधिक वह पैसा कमा कर लाएगा, परिवार में उतना ही उसका रसूख कायम हो जाएगा.हैरत की बात है कि स्त्री यह सब देखती है और प्रतिरोध नहीं करती. उल्टे वह अपने बदतमीज और पापी पुरुष का सब जगह बचाव करती दिखती है.ऐसा लगता है कि स्त्री का पूरा जीवन पुरुष-केंद्रित है. शायद पुरुष के बिना वह अपने जीवन की कल्पना ही नही कर पाती है.मां,बहन, पत्नी, दासी से उठकर वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व को अनुभव ही न कर पाई है शायद .वह स्त्रियाँ भी जो स्वयं कमाने लगी हैं.. पुरुष के दबदबे और दासत्व से मुक्त नहीं हैं.वह अब भी अपने अस्तित्व को किसी दरिया की तरह देखती हैं जिसे अंततः पुरुष में जाकर समा जाना है.नहीं, स्त्री का सशक्तिकरण सिर्फ पैसा कमाना ही नहीं है.. बल्कि अपनी गरिमा और शांतिपूर्ण रहन-सहन के मौलिक अधिकार की रक्षा करना भी उसका दायित्व है.किसी दरिया की तरह नहीं, बल्कि धरती और आकाश की तरह समानांतर सह-अस्तित्व में ही उसके स्वतंत्र अस्तित्व की स्थापना संभव है.उसे अपने साथ होने वाले हर उस दुर्व्यवहार का विरोध करना होगा जो उसके जीवन को नरक बना देते हैं.किसी को यह हक नहीं कि बात-बात पर उसके मन की शांति को भंग करें, उसका अपमान करें और उसके विकास की सब संभावनाओं और क्रिएटिव पोटेंशियल को ख़त्म कर दे.प्रेम पूर्ण सह-अस्तित्व का जीवन, तब तक मुमकिन नहीं जब तक हम अपने साथ रहने वाले मनुष्य के प्रति शिष्टता और सलीके से पेश नहीं आते हैं.वे समस्त स्त्रियों स्तुत्य हैं, जिन्होंने अपनी डिग्निटी के रक्षार्थ संघर्ष किया, दुष्ट और असभ्य पुरुषों का विरोध किया, आवश्यक होने पर उनका परित्याग किया और अकेले ही जीवन जीने का निश्चय किया... वह स्त्रियाँ सही मायने में क्रांतिकारी हैं, क्योंकि वे घिनौने पुरुषवाद के खिलाफ क्रांति की अग्रदूत हैं.यह एक बड़ी और युग-रूपांतरणकारी लड़ाई है, जिसमें स्त्री को, अपनों के ही विरोध और लांछन का दंश झेलना लाजमी है. कोई बराबरी का कानून या सामाजिक नियम औरत को आजाद नहीं कर सकता जब तक कि वह खुद ही अपने दासत्त्व की जंजीरें न काटना चाहे.एक बार वह पूरी मर्द जात को अपने जीवन से निकालकर केवल अपने ही वजूद में जीने का ख्वाब तो देखें.अपनी तरह से परिधान पहने.. किसी पुरुष को रिझाने के लिए नहीं,खुद के लिए जिए..किसी पुरुष का जीवन बसाने के लिए नहीं. ऐसे ख्वाब की चंद बूंदे ही वह गंगोत्री सिद्ध होंगी..जो देर सवेरे स्त्री-क्रांति की जलधारा को समाज में उतार ले आएंगी.अन्यथा पुरुष-उन्मुख रहकर वह कभी अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित न कर पाएगी.यह भी सच है कि सभी पुरुष एक जैसे नहीं होते. वे स्त्रियां सौभाग्यशाली हैं जिन्हें अपने जीवन में शिष्ट पुरुष मिले.मगर इसका यह अर्थ नहीं कि ऐसी गर्विणी औरतें, अपनी हमजिंस औरतों के दुख से मुंह मोड़ लें और उनके हक में आवाज बुलंद न करें.क्योंकि जब तक औरत, औरत के हक में खड़ी न होगी, औरत की कोई क्रांति मुकम्मल न होगी.साभार

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