स्त्री , पुरूष से किसी भी दृष्टि से हेय नही है ।

स्त्री – पुरूष तो एक दूसरे के पूरक है । पुरुषों को भी स्त्री को देह रूप में स्वीकार करना छोड कर स्त्री रूप में समझने का प्रयास करना होगा ।
” दो – दो कोर अन्न पा लेंगी ,ओर धोतियां चार ।
  नारी तेरा मूल्य यही तो रख ,रखता है संसार ।"
पंचवटी , मैथेलीशरण गुप्त
आधुनिक युग में अर्थवादी रुझान के कारण स्त्री स्वाभाविक रूप से आत्मनिर्भर हो कर धनोपार्जन के लिए विवश हैं । उसके लिए स्त्री का चारदीवारी से बाहर निकलना भी अनिवार्य है ।
हाड़ मांस की बनी हुई ये स्त्रियाँ — चाहे दफ्तरों की फाइलों में दबी हुई हो , चाहे खेतो में काम करते हुए हो , सड़क पर झाड़ू लगाते हुए हो ,, या फिर सभी ऐश्वर्य में भी बावजूद पलंग पर अकेली रात भर करवटें बदलते हुई हो । ये सभी अपने – अपने तरीकों से जीवन जीने की कोशिश में छटपटाती रहती है ।
आज के पुरूष में सामन्तवादी पुरुष कही न कही मौजूद है । वो यह चाहता है कि पत्नी नोकरी करे , लेकिन साथ ही घर की देखभाल करें , चूल्हा – चौका भी करे , ओर फिर पति के पैर भी दबाए । इतने पर भी कोई न कोई कमी दिखाई दे ही जाती है ।
नासिरा शर्मा का कहना गलत नहीं है — ” न जाने पुरुषों को को पत्नी के रूप में केसी स्त्री चाहिए ? यदि वह अनपढ़ है तो फूहड़ कहलाती है और यदि वह पढ़ी लिखी है मिल जाये तो उसकी चुस्ती से आतंकित हो जाते है । ”
मानवीय सन्दर्भो के अंतर्गत यदि स्त्री विमर्श किया जाए तो आधुनिक स्त्री ने स्वयं की चिरपोषित ‘ अबला ‘ की छवि को तोड़कर एक नए जुझारू व्यक्तिव ओर रचनाशील भूमिका निभाने का प्रयत्न करने में सफल हो रही है ।

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