मैं स्त्री हूँ ,,,
जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है ,,,
"मैं रति की प्रति कृति , लज्जा हूँ , मैं शालीनता सिखाती हूँ ।
आज फिर से यही प्रश्न मेरे समक्ष उभर आया है यूं तो स्त्री के अनेक रूप हैं और मैं जब जब भी उसके बारे में सोचती हूं तो ऐसा लगता है कि मैं उसके किस रूप की बात करूं ,,, ।।
मैं ही वही स्त्री हूं जो प्राचीन काल में ज्ञान व विद्वता का कोष थी । मैं ही याज्ञवल्क्य जैसे ऋषि यों को टक्कर देती आई हूं । वह मैं ही थी जो अपने पति के द्वारा शापित होकर एक कुरूप संतान को जन्म देने पर बाध्य हुई थी । मैंने अपने हर रूप को साकार जिया है ।
मैं वही सीता हूं जिसने राम की मर्यादा पर कोई आंच ना आए वनवास को स्वीकार कर लिया था,,,, । वह मेरी ही अगाध आस्था थी की कुटिया में अभी मैंने राजभवन का सुख पाया था ,,, । वह मैं ही थी जिसने गांधारी बनकर पति धर्म निर्वाह करने के लिए स्वयं की आंखों पर पट्टी बांध ली थी,,, । प्राचीन समय में मैं वेद अध्ययन करती थी तथा स्रोतों की रचना भी करती आई हूँ । मैं ही लोपामुद्रा ,,,, मैं ही घोषा ,,,, मैं ही इंद्राणी थी ,,,।।
परिस्थितियां योग चाहे बदल जाए परंतु प्रेम के प्रति मेरा समर्पण कभी कम नहीं हुआ,,, ।। मैं वर्तमान समय में सक्षम हूं । समर्थ हूं ।
अपनी विशिष्ट पहचान के साथ हमेशा परिवार व समाज को एक नई ऊंचाइयां प्रदान की है । मैंने ही सूक्ष्म रूप से छिपे तत्वों को पहचाना और यथार्थवादी चित्रांकन से विभिन्न समस्याओं का निरूपण भी किया ।
मैं स्वयं सशक्त हूं और अपने परिवार व समाज को भी सक्षम बनाना चाहती हूं लेकिन वास्तविक स्थिति अलग है । मेरे साथ भेदभाव किया जाता है,,,, दिन प्रतिदिन मेरे प्रति भेदभाव की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है मेरे जन्म लेने पर अप्रसन्नता भी व्यक्त की जाती है ,,, ।।
नैतिकता व चरित्र के मामले में भी दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं ,,, क्यों ,,,??
मेरी स्थिति समाज में अत्यंत विरोधाभासी रही है । एक तरफ तो शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है तो दूसरी तरफ मुझे बेचारी और अबला भी कहा जाता है।
मैंने अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार पर अपने लिए नई मंजिलों और रास्तों का निर्माण किया है।
फिर भी समस्त मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का उपभोग क्यों नहीं कर पा रही ...?? समस्या कहां है,,, ??
पुरुष सिर्फ देह तक सीमित रखकर स्त्री को गुलाम बनाए रखना चाहता है लेकिन मैं इस समस्त पुरुष समाज से यह कहना चाहती हूं कि स्त्री को पूज्या नहीं समानता चाहिए ।।
"मैं रति की प्रति कृति , लज्जा हूँ , मैं शालीनता सिखाती हूँ ।
आज फिर से यही प्रश्न मेरे समक्ष उभर आया है यूं तो स्त्री के अनेक रूप हैं और मैं जब जब भी उसके बारे में सोचती हूं तो ऐसा लगता है कि मैं उसके किस रूप की बात करूं ,,, ।।
मैं ही वही स्त्री हूं जो प्राचीन काल में ज्ञान व विद्वता का कोष थी । मैं ही याज्ञवल्क्य जैसे ऋषि यों को टक्कर देती आई हूं । वह मैं ही थी जो अपने पति के द्वारा शापित होकर एक कुरूप संतान को जन्म देने पर बाध्य हुई थी । मैंने अपने हर रूप को साकार जिया है ।
मैं वही सीता हूं जिसने राम की मर्यादा पर कोई आंच ना आए वनवास को स्वीकार कर लिया था,,,, । वह मेरी ही अगाध आस्था थी की कुटिया में अभी मैंने राजभवन का सुख पाया था ,,, । वह मैं ही थी जिसने गांधारी बनकर पति धर्म निर्वाह करने के लिए स्वयं की आंखों पर पट्टी बांध ली थी,,, । प्राचीन समय में मैं वेद अध्ययन करती थी तथा स्रोतों की रचना भी करती आई हूँ । मैं ही लोपामुद्रा ,,,, मैं ही घोषा ,,,, मैं ही इंद्राणी थी ,,,।।
परिस्थितियां योग चाहे बदल जाए परंतु प्रेम के प्रति मेरा समर्पण कभी कम नहीं हुआ,,, ।। मैं वर्तमान समय में सक्षम हूं । समर्थ हूं ।
अपनी विशिष्ट पहचान के साथ हमेशा परिवार व समाज को एक नई ऊंचाइयां प्रदान की है । मैंने ही सूक्ष्म रूप से छिपे तत्वों को पहचाना और यथार्थवादी चित्रांकन से विभिन्न समस्याओं का निरूपण भी किया ।
मैं स्वयं सशक्त हूं और अपने परिवार व समाज को भी सक्षम बनाना चाहती हूं लेकिन वास्तविक स्थिति अलग है । मेरे साथ भेदभाव किया जाता है,,,, दिन प्रतिदिन मेरे प्रति भेदभाव की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है मेरे जन्म लेने पर अप्रसन्नता भी व्यक्त की जाती है ,,, ।।
नैतिकता व चरित्र के मामले में भी दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं ,,, क्यों ,,,??
मेरी स्थिति समाज में अत्यंत विरोधाभासी रही है । एक तरफ तो शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है तो दूसरी तरफ मुझे बेचारी और अबला भी कहा जाता है।
मैंने अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार पर अपने लिए नई मंजिलों और रास्तों का निर्माण किया है।
फिर भी समस्त मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का उपभोग क्यों नहीं कर पा रही ...?? समस्या कहां है,,, ??
पुरुष सिर्फ देह तक सीमित रखकर स्त्री को गुलाम बनाए रखना चाहता है लेकिन मैं इस समस्त पुरुष समाज से यह कहना चाहती हूं कि स्त्री को पूज्या नहीं समानता चाहिए ।।
कितना सुन्दर लिखा है, बार बार पढ़ने का मन होता है...बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteकितना सुन्दर लिखा है, बार बार पढ़ने का मन होता है...बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteविस्वस्वरूपा,जगजननी
ReplyDeleteयही हमारी भार्या
यही हमारी अर्द्धांगिनी
इसके चरणों की रज को
मस्तक पे हमने लगाया है
नारी के सम्मान के खातिर
एक कदम हमने बढ़ाया है
नारी शक्ति है, सम्मान है
नारी गौरव है,अभिमान है....
स्त्री औऱ पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.... एक दूसरे को नीचा दिखाकर या एक दूसरे को नजरअंदाज करके दोनों में से किसी की कोई कीमत नहीं है।