स्त्री न तो देवी है और न ही मायाठगिनी ,,,,

" यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता : " ।
यत्रेतास्तु पुज्यन्ते सर्वस्त त्राफला : क्रिया : ।।

         मनुस्मृति  3/57


स्मृति कारो ने नारी के विषय में जो उदगार व्यक्त किये है ,,, उनकी प्रशंसा न केवल भारतीय विद्वानों ने अपितु पाश्चत्य दार्शनिकों ने भी की है  । 

नीत्शे ने लिखा है कि --- मनुस्मृति को छोड़ कर मेरे देखने मे ऐसी कोई पुस्तक नहीं आई जिसमें इतने ममतापूर्ण ओर दयापूर्ण उदगार हो । "


   "यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते ,,,,,,  बतलाने वाले मनु ने पत्नी - शासित  ,  भार्या - वश  , एवं स्त्री विजित पुरूषों की बड़ी निंदा की है और कहा है कि ऐसे पुरूषों के यहाँ तो देवता भी " हवि " ग्रहण नहीं करते ।



स्मृतिकारों में से अधिकतर ने बात जोर देकर कही है कि स्त्री स्वतन्त्र रहने योग्य नहीं है ----  ( मनुस्मृति , 9/ 2 / 3 )



 " मनुस्मृति " स्त्री को अपनी मूल पहचान की छूट नहीं देती । जन्म से लेकर मृत्यु तक वह पिता , पति , ओर संतान के संरक्षण में ही सुरक्षा और सम्मान की पात्र है।


नारी के मातृस्वरूप  के  प्रशंसक  जगद्गुरू शंकराचार्य जी ने भी नारी को ----

  " द्वारं किमेकं नरकस्य नारी "


ऋषि मुनियो का नारी के प्रति सम्मान का कुछ ऐसा ही ढंग रहा।

 " ज्ञानार्णव  "  के प्रणेता श्री शुभचन्द्र आचार्य जी के मतानुसार तो ,,, ---" नारी की वाणी में ओर ह्रदय में विष होता है । " वे कहते है कि स्त्री - पुरूषों को साँप की दाढ़ के समान भय और संताप प्रदान करने वाली है ।


तुलसीदास जी भी निष्कर्ष रूप में घोषणा करते हुए कहते है ----

   "जिमि स्वतंत्र होई बिगरहि नारी " ।
 तात्पर्य स्वतंत्र होकर नारी मार्ग भृष्ट हो जाती है ।।






पुरुष प्रधान समाज ने धर्म और रीतिरिवाज के रूप में स्त्री को पुरुष के अधीन होकर चलने की ही शिक्षा दी गयी । उसे यही समझाया गया कि यहाँ चाहे वह पुरुष का मुकाबला भले ही कर ले परन्तु परलोक में उसे पछताना पड़ेगा ।


गोस्वामी तुलसीदास ने स्त्री समाज को इंगित करते हुए कहा है कि आदरपूर्वक सास  -  ससुर के चरणों की पूजा करने से बढ़कर कोई दूसरा नारी धर्म नही है -----

 "यहि ते अधिक धर्म नहीं दूजा ।
सादर सास ससुर पद पूजा ।। "




नारी की आज जो हालत है उसमें  धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका है । बिना धर्म के बंधन से मुक्त हुए नारी की सच्ची मुक्ति सम्भव नहीं है । धर्म और सामन्तवाद एक दूसरे के पूरक हैं ।
धर्माचार्यों के लिए स्त्री एक माया है तो दूसरी तरफ सामन्तों के लिए भोग की वस्तु ।
धर्म के नाम पर उसका त्याग भी होता हैं और दान भी ।
इस व्यवस्था में पुरूष उच्च कुल का हो या नीच कुल का ,,,, स्त्री के सम्बंध में उसके विचार एक समान ही रहे है ।




हज़ारों सालो की पुरुष मानसिकता को एकदम से बदल पाना मुमकिन नहीं है ।
स्त्री मुक्ति का सवाल भी आसान सवाल नहीं है ।




परन्तु समाज की इस पुरातन व्यवस्था और जड़ता पर प्रहार होते रहना चाहिए ।



स्त्री न ही देवी है और न ही माया ठगिनी माया का रूप होने के कारण घृणीय ओर त्याज्य । वह भी बुद्धि ,  विवेक , भावानुभूति से पूर्ण सहयोगी  , संगिनी ओर साथी  है जो पुरुष के साथ आश्रय के आदान - प्रदान के बीच सन्तति की परम्परा के माध्यम से अमरत्व का आश्वासन देती है ।



वह एक ऐसे पौधे की तरह है खुली धूप , मुक्त आकाश , हवा और पानी के अभाव में वर्जनाओं की बंजर भूमि पर रोपे जाने पर बिना जड़ जमाये ही सुख और मुरझा जाती है ।।

Comments

  1. समझ नही पा रहे क्या कमेंट कर...ना ही समझ पा रहे जो ऋषि मुनियों से सदियों पहले लिखा वो सत्य है या आप कह रहे हो वो

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  2. समझ नही पा रहे क्या कमेंट कर...ना ही समझ पा रहे जो ऋषि मुनियों से सदियों पहले लिखा वो सत्य है या आप कह रहे हो वो

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