काश -- मैं पंछी होती ,,, मैं उड़ पाती !!

महाभारत में व्यास जी ने कहा है कि कन्या ही वह आधार है जिससे सारी कामनाये जीवन का उत्कर्ष पाती हैं ----
  "यस्मात काम्यते सवान कर्मेधारतोश्य
                              भगिनि ।
तस्मात कन्येह सु श्रोती  , स्वतंत्रता
                             वर वर्णिनी ।।



कंस के घर पैदा हुई कन्या ,, कंस के संहार का आधार है  ,,, वही लाज बचाने के लिए द्रौपदी का भरी सभा मे अनादर भी दुखद गाथा है जो स्त्री जीवन से जुड़ी है ।





 कुछ काव्य पंक्तियों के माध्यम से स्त्री समाज को ,,, एक कवियत्री संबोधित करते हुए संदेश देती है ---

      "देवियों क्या पतन अपना देखकर
        नेत्र से आंसू निकलते हैं या नहीं  ? "

 कुछ साल पहले तक महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर उनके सशक्तिकरण , उनकी उपलब्धियों ,  और संघर्षों पर  लिखित साहित्य और अवधारणाओं पर गंभीरता से चर्चा नहीं की जाती थी ।


 उन्हें घर के सीमित दायरे की सीमित समस्याओं के घेरे में रचा लेखन मानकर या घर बैठी सुखी महिलाओं का लेखन मानकर गंभीरता से नहीं लिया जाता था ।


 स्त्रियों पर जो भी चर्चाएं हुई है पुरुषों ने ही की चाहे वह सामाजिक सरोकारों के मध्य नजर हो या सहानुभूति पूर्वक ।   स्त्री चरित्रों को लेकर पुरुष रचनाकारों का एक अपना नजरिया और अपना आकलन था ।







 हालांकि यह एक बहुत ही जटिल प्रश्न है और इसका सही उत्तर ढूंढ पाना भी मुश्किल है क्योंकि संस्कार और आचार विचार के प्रश्न स्त्री के अस्तित्व पर चरित्रांकन करने के लिए लगभग एक पैने औजार की तरह कार्य करते हैं ।




 पंचतंत्र कार के हजारों वर्ष बाद पैदा हुआ हिंदी कवि अब्दुर रहमान स्त्री पीड़ा को महसूस करते हुए लिखा है कि विधाता स्त्री का जन्म तूने क्यों दिया अगर नारी ही गढ़नी  थी तो क्या सृष्टि में और जीवधारी नहीं थे ,,,??
 तूने मुझे मादा पक्षी ही बना दिया होता मैं उड़ पाती,,,, !!   वन का रोझ बना दिया होता मैं मुफ्त वितरण तो कर पाती ,,, !! "




 संस्कृत के यशस्वी नाटककार भवभूति ने लिखा था कि ---- " स्त्री और वाणी को साधु  - पवित्र मानने वाले लोगों की संख्या दुर्लभ है  । "



लेकिन वर्तमान शताब्दी में भारतीय नारी अपनी वर्जनाओं को तोड़कर ,,, लक्ष्मण रेखाओं को पीछे छोड़कर  ,,, अबला पन की भावनाओं को तिलांजलि देकर विकास के नए रास्ते बना रही है  ।

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