स्त्री -- प्रजीवन शक्ति है ।

 प्राचीन शक्ति स्रोत में यह कहा गया है कि ---

      स्त्रये देवः   स्त्रये   प्राण :


अथार्त  नारियां देव है नारियां स्वयं जीवन है ,,,, ।।

  स्त्री से भरा जीवन शक्ति है इसकी तो स्वयं प्रकृति है लेकिन दुख की बात यह है कि  प्रकृति के विनाश का पहला शिकार स्त्री ही होती है  ।। कुदरत ने उसे अपनी सृजन क्षमता ,,,, अपना होने का वरदान भेजा है ।। स्त्री को अपनी  क्षमता व प्रकृति के दिए इस वरदान को पहचानना होगा ।।


 वर्तमान परिस्थितिया इससे भिन्न है ,,, यह  एक विचारणीय प्रश्न भी है कि स्त्री ने अपनी समानता व स्वतंत्रता को पाने के लालच में  कही - कही दूसरी स्त्री के अधिकारों का हनन भी कर दिया है ।। घर से लेकर बाहर तक महत्वाकांक्षी स्त्री अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए दूसरी स्त्री की स्वतंत्रता वह इच्छाओं को कुचलती हुए आगे बढ़ जाती है ।।



 पुरुष प्रधान समाज होते हुए भी कहीं-कहीं  पुरुष को माध्यम बना   महत्वाकांक्षी स्त्री -- समानता व आदर्श की  , पारिवारिक कायदों की  , न्याय की बातें ,  जोर-शोर से करती नजर आती हैं ।।

 स्त्रियों का दृष्टिकोण वहीं तक विकसित होता है  कि किस प्रकार किस प्रकार पुरुष को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर उचित-अनुचित हथकंडे अपना कर अन्य स्त्री के सम्मान को ठेस पहुंचाई जाए स्वयम के स्वार्थ से वशीभूत होकर वह मानवीय संबंधों तथा नीति नियमों को भी ताक में रख दिया करती है ।।


 स्त्री के देह तो एक मां की देह है  । नई पीढ़ी को जन्म देने वाली मातृत्व की रक्षा हो ,, यह किसी भी समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है ।।




 परंतु महत्वाकांक्षा स्त्री अपने पतनशील स्वभाव से पुरुष के पाखंडी ताकत के बल पर षड्यंत्र करती है स्वार्थों से  वशीभू तमाम आबोहवा में अन्य स्त्री के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह भी लगा देती है ।  मूर्ख स्त्री अपनी भावनाओं को कहीं कहीं तो मातृत्व जैसे गुणों का भी दुरुपयोग कर डालती है वह परिवार का ही नहीं समाज का भी नैतिक पतन का कारण बनती है ।। 

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  1. सुन्दर एवं सत्य अभिव्यक्ति

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