ईर्ष्यालु स्त्री

 स्त्री अधिकांश तथा अन्य स्त्रियों के प्रति असहिष्णु होती है ।  चाहे परस्पर कोई भी रिश्ता हो कहीं ना कहीं कभी ना कभी वह ईर्ष्यालु हो उठती है ।

 क्योंकि स्त्री में अपनों के प्रति कोमलता ,  मधुरता और त्याग की भावना निहित रहती है ।  स्त्री जब विवाहित होकर आती है तो उसके आसपास अपरिचितों की भीड़ लगी रहती है ।  हालांकि वह गृह स्वामिनी पद की दावेदार होती है तथा गृह लक्ष्मी के रूप में उसका स्वागत भी किया जाता है ।



 स्त्री अपने प्रेम  , सहानुभूति एवं समझौतावादी स्वभाव से  परिवार में सभी रिश्तो के माध्यम से सेतु भी बनाती है  । रिश्ता चाहे सास ननंद का हो या देवरानी-जेठानी का वह अपने स्नेह अनुराग से सींचती  है ।




 कहीं कहीं कुछ जिद्दी स्वभाव की स्त्रियां भी होती है जिन से परिवार में द्रोह की संभावना भी हो जाती है ।
 वर्तमान समय में ऐसे बिखरे परिवार हमें यत्र-तत्र दिखाई दे जाते हैं जिनमें स्त्री स्वयं की इच्छाओं की पूर्ति के लिए रिश्तो का भी त्याग कर देती है । 



उनकी नजर में वह सिर्फ उसका पति ही उसका परिवार होता है सास ननंद देवरानी-जेठानी सभी रिश्तो को वह अपने परिवार के अंतर्गत नहीं मानती ।  वह अपने ईर्ष्यालु  स्वभाव  या परस्पर द्वेष की भावना से  अन्य रिश्तो को अपनाने से अस्वीकार कर देती है ।




 कहीं-कहीं तो इस तरह अन्य स्त्री का घर तोड़ने या उससे पीड़ा पहुंचाने में अपनी अहम भूमिका निभाती दिखाई दे जाती है ।





 मुक्त होती  आज की स्त्री उन  भावनात्मक  रिश्तों और परंपराओं से भी मुक्त होना चाहती है  जिनसे  उसका अस्तित्व बना हुआ है ।  पश्चिमी सभ्यता के प्रति आकर्षण इतना अधिक बढ़ चुका है कि  सयुक्त  परिवार उसे रास नहीं आता और एकल परिवार का ढोंग करती नजर आती है   तथा स्वयं को बौद्धिक समाज का अंग समझने लगती है ।




 आधुनिक समाज में आधुनिक फैशन से लैस रहने वाली स्त्री परिवार के सदस्यों का सम्मान करने के बजाय कहीं-कहीं पर परायेपन का भाव भी बना देती
 है ।




 प्रत्येक रूप में स्त्री को भांति भांति की पात्रता अभिनीत करनी पड़ती है ।  यह प्रत्येक नारी स्वभाव पर ही आधारित होता है । 

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