स्त्री विमर्श
नरकृत शास्त्रों के सब बंधन है ,
नारी को ही लेकर
अपने लिए सभी सुविधाएं
पहले ही कर बैठे नर
पंचवटी , मैथिलीशरण
भारत में हिंदू धर्म एक महत्वपूर्ण धर्म है हिंदू धर्म में देवियां है जिनकी उपासना होती है । राधा कृष्ण का प्रेम हिंदू मानस की सोच का हिस्सा है लेकिन फिर भी प्रश्न यह है कि यह हिंसा कहां से आती है --- प्रेयसी को , पत्नी को , जिंदा जलाने , दहेज कम लाने पर प्रताड़ना , संदेह होने पर हत्या,,, औरत पर घर बाहर की जिम्मेदारी डाल उस को पतिव्रता के कारागार में बंद कर उसकी सारी इच्छाओं का दमन ,,, ।।
वैदिक युग में स्त्रियों को वेदों की शिक्षा दी जाती थी स्त्री पुरुष के कार्यों में कोई भेद नहीं होता था । स्त्रियों का समाज में सम्मान होता था । वैदिक उत्तर काल में ज्यों-ज्यों समय बीतता गया स्त्रियों की स्थिति भी नीचे सरकती रही । स्त्रियों के चरित्र के साथ सवाल जोड़ कर उसे लाजवंती बना दिया गया ।
जहां एक और रामायण कालीन समय में स्त्री को नैतिकता का आदर्श मान लिया गया । वह मात्र पुरुषों की दासी बन कर रह गई । उसका कर्तव्य केवल पति की सेवा तथा अंध आज्ञा का पालन करना मात्र रह गया था ।
वही द्वापर युग की द्रोपदी एक ऐसी स्त्री थी जिसने अपने मान अपमान को समझा और उसके विरुद्ध संघर्ष भी किया ।
पुराणों में विवाह संस्था के चौखटे में स्त्री को इस प्रकार भली-भांति मजबूती से बांध दिया है कि नर नारी और समानता की प्रक्रिया आज के वैज्ञानिक युग और मुक्त समाज में भी परिवर्तन नहीं की जा सकी है ।
सच्चाई यह है कि कोई भी पुरुष स्त्री के जीवन को एक पल के लिए भी जीना नहीं चाहता । क्योंकि उसे स्त्री बनकर झुकना पड़ेगा और सृजन की पीड़ा को भी सहन करना पड़ेगा ।
कोई भी पुरुष स्त्री के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करना चाहता ,,,,, पुरुष नहीं चाहता कि वह उसके अलावा
सिवा अपना अस्तित्व ओर वजूद निर्माण कर सकें ।
आज भी स्त्री कई स्तरों पर खंडित है स्त्री का रूप चाहे जो भी हो उसे उस के दोहरे दायित्वों से मुक्ति नहीं मिली है ।
इतिहास अपनी कोख में जाने कितनी घटनाएं दुर्घटनाएं छुपाए हुए हैं । समाचार पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जी ने समय-समय पर सूचनाएं भी दी है स्त्री जाति पर हुए अत्याचार जो जन आंदोलन एवं वैचारिक धरातल पर विद्रोह का रूप भी बने ।
वास्तव में इनके पीछे रोज घुटती , मरती , पिसती जिंदगी औरतें जीती है जिससे रोज हमारे नारी विमर्श के कलमकार वह समाज सेविकाएं लड़ते हैं ।
यदि स्त्री पुरुष गाड़ी के दो पहिए हैं तो इन दोनों पहियों में संतुलन क्यों नहीं है ,,,, ? ??
स्त्री ही क्यों इस गाड़ी को खींचती नजर आती है कभी परंपराओं के नाम पर ,,, कभी कर्तव्यों के नाम पर ,,, ???
नारी को ही लेकर
अपने लिए सभी सुविधाएं
पहले ही कर बैठे नर
पंचवटी , मैथिलीशरण
भारत में हिंदू धर्म एक महत्वपूर्ण धर्म है हिंदू धर्म में देवियां है जिनकी उपासना होती है । राधा कृष्ण का प्रेम हिंदू मानस की सोच का हिस्सा है लेकिन फिर भी प्रश्न यह है कि यह हिंसा कहां से आती है --- प्रेयसी को , पत्नी को , जिंदा जलाने , दहेज कम लाने पर प्रताड़ना , संदेह होने पर हत्या,,, औरत पर घर बाहर की जिम्मेदारी डाल उस को पतिव्रता के कारागार में बंद कर उसकी सारी इच्छाओं का दमन ,,, ।।
वैदिक युग में स्त्रियों को वेदों की शिक्षा दी जाती थी स्त्री पुरुष के कार्यों में कोई भेद नहीं होता था । स्त्रियों का समाज में सम्मान होता था । वैदिक उत्तर काल में ज्यों-ज्यों समय बीतता गया स्त्रियों की स्थिति भी नीचे सरकती रही । स्त्रियों के चरित्र के साथ सवाल जोड़ कर उसे लाजवंती बना दिया गया ।
जहां एक और रामायण कालीन समय में स्त्री को नैतिकता का आदर्श मान लिया गया । वह मात्र पुरुषों की दासी बन कर रह गई । उसका कर्तव्य केवल पति की सेवा तथा अंध आज्ञा का पालन करना मात्र रह गया था ।
वही द्वापर युग की द्रोपदी एक ऐसी स्त्री थी जिसने अपने मान अपमान को समझा और उसके विरुद्ध संघर्ष भी किया ।
पुराणों में विवाह संस्था के चौखटे में स्त्री को इस प्रकार भली-भांति मजबूती से बांध दिया है कि नर नारी और समानता की प्रक्रिया आज के वैज्ञानिक युग और मुक्त समाज में भी परिवर्तन नहीं की जा सकी है ।
सच्चाई यह है कि कोई भी पुरुष स्त्री के जीवन को एक पल के लिए भी जीना नहीं चाहता । क्योंकि उसे स्त्री बनकर झुकना पड़ेगा और सृजन की पीड़ा को भी सहन करना पड़ेगा ।
कोई भी पुरुष स्त्री के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करना चाहता ,,,,, पुरुष नहीं चाहता कि वह उसके अलावा
सिवा अपना अस्तित्व ओर वजूद निर्माण कर सकें ।
आज भी स्त्री कई स्तरों पर खंडित है स्त्री का रूप चाहे जो भी हो उसे उस के दोहरे दायित्वों से मुक्ति नहीं मिली है ।
इतिहास अपनी कोख में जाने कितनी घटनाएं दुर्घटनाएं छुपाए हुए हैं । समाचार पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जी ने समय-समय पर सूचनाएं भी दी है स्त्री जाति पर हुए अत्याचार जो जन आंदोलन एवं वैचारिक धरातल पर विद्रोह का रूप भी बने ।
वास्तव में इनके पीछे रोज घुटती , मरती , पिसती जिंदगी औरतें जीती है जिससे रोज हमारे नारी विमर्श के कलमकार वह समाज सेविकाएं लड़ते हैं ।
यदि स्त्री पुरुष गाड़ी के दो पहिए हैं तो इन दोनों पहियों में संतुलन क्यों नहीं है ,,,, ? ??
स्त्री ही क्यों इस गाड़ी को खींचती नजर आती है कभी परंपराओं के नाम पर ,,, कभी कर्तव्यों के नाम पर ,,, ???
उत्तम अभिव्यक्ति (बहुलांश)
ReplyDeleteस्त्री आश्रय न माँगे तो उसकी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रह सकती है.
आपने सत्य कहा है आपने मनुस्मृति के पांचवे अध्याय के 148 वा श्लोक में कहा गया है "एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए, शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए, पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए" कितनी घृणित मानसिकता वाले लोगों ने ग्रंथ लिखे है शर्म आती है और उससे भी ज्यादा है उसे मानने वाले और महिलाओं पर थोपने वाले लोग
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