नारी : एक रत्न है ।।

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 वेद काल में स्त्री एक रत्न थी l  इस युग की गार्गी ,  घोषा ,  गोधा  ,  अपाला  , जुहू  , अदिति , उषा ,  इंद्राणी  , इला  , सरस्वती ,  लोपामुद्रा  , उर्वशी  , यामी श्रद्धा  , सावित्री  , सची ,,,,,, जैसी अनेक मंत्र दृष्टा एवं ब्रह्मवादिनी सन्ननारियों के उल्लेख वेदों में मिलते हैं ।
 सम्माननीय होने के कारण नारी को वेदों में  ' सेना '  के नाम से अभिहित किया है ।


 नाम के अनुरूप असूया भाव से रहित अनुसूया ने सिद्ध कर दिया कि नारी पुरुष से किसी भी दृष्टि से हैय नहीं है  ।
अपने तप से सूर्य का भी अवरुधन करने वाली अरुंधति आज भी आकाश में सप्तर्षियों के मध्य वशिष्ठ के समीप अपनी ज्योति में लीन हो टिमटिमा रही है स्थाई वैवाहिक संबंध का प्रतीक है देवी अरुंधति ।

 ऋषि का घोषा और अपाला का जीवन शारीरिक रूप से विकलांगों के लिए आदर्श उपस्थित करता है । इन्होंने घातक रोग से आक्रांत होने पर भी अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और देवों के शरणागत ही परम सिद्धि प्राप्त की थी । 


 वैदिक युग में नारियों की अवस्था समुन्नत थी  और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार भी प्राप्त थे ।  परंतु यह देख कर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता कि उस काल में भी नारी के प्रति हीन विचारों की कमी नहीं थी ।
  ' ऋग्वेद  '  में  स्त्रियों को मन पर अधिकार न रख सकने वाली कहा गया है ।  'एतरेय  ब्राह्मण '  के अंतर्गत नारी को  " भारी अनर्थ की जड़ " और परिवार में कन्या का जन्म दुखदाई माना गया है ।

  'मैत्रेई संहिता' में मदिरा और जुआ के साथ-साथ स्त्री को भी एक दोष माना गया है ।

  'तैत्तरीय संहिता 'और  ' शतपथ ब्राह्मण'  में स्त्री को शुद्र तथा बुरे पुरुषों से भी बुरा बताया गया है ।

 ' शतपथ ब्राह्मण 'के अनुसार पति को भोजन कराना और उसके सामने न बोलना नारी के लिए आवश्यक माना जाने लगा था ।

 उपनिषद काल तक आते-आते वैदिक युग में नारी का जो गौरव था वह शनै-शनै क्षीण होने लगा था । अथार्थ नारी की अधोगति का श्रीगणेश हो चुका था ।

 आगे चलकर तुलसीदास जी पर भी तत्कालीन संत समाज  का  मनोवैज्ञानिक प्रभाव दिखाई देता है ।  संत होने के कारण उनका कंचन और कामिनी के प्रति सतर्क रहना स्वभाविक ही था और तत्कालीन संत समाज को भी सचेत करने की आवश्यकता रही हो ।  संत परंपरा की यही दृष्टि नारी के प्रति अत्यंत संदेहशील और कठोर रही है ।
 तुलसीदास जी पर देश काल का प्रभाव था उस युग में स्त्रियों की दशा अत्यंत  हीन थी वह वास्तव में अज्ञ ,  मतीमंद तथा लोक वेद विधि हीन थी ।

 यह कहना केवल पुरुषों का  ही नहीं है ,   अपितु नारी स्वयं भी अपने विषय में ऐसा ही कहती दिखाई देती है ।

 राम से शबरी कहती है कि -----


  " अधम ते अधम अधम अति नारी ।
 तिन्ह मह में मतिमंद गवारी ।। "

 उधर भगवती अनुसूया भी नारी को अपावन बताते हुए कहती है कि ----
       
           "  सहज अपावन नारी "


 जिस तरह अड़ियल घोड़े की पीठ पर गाड़ीवान निरंतर चाबुकों की वर्षा करता है उसी प्रकार यह अक्खड़ संत गलत समाज की पीठ पर वाणी के चाबुकों की वर्षा निरंतर करते रहते थे ।



 वेदव्यास जी ने तो यहां तक कह दिया कि  ---- नारी के लिए कुछ भी अगम्य नहीं है  । वह पति के भय से ही मर्यादा में रहती है जब विधाता ही नारी की रक्षा नहीं कर सकता तो नर के बस की तो बात ही नहीं ।

 वेदव्यास जी का कहना है कि नारी ज्वलित अग्नि साक्षात माया ,  धारदार उस्तरा  , कालकूट विष और साक्षात सर्प है ।

 इतना ही नहीं महाभारतकार का कथन है कि  --- यदि कोई सो जीभो वाला हो और सो वर्ष जिए और इस जीवनकाल में भी दूसरा कार्य ना हो तो भी वह स्त्रियों के समग्र दोष कहे बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा ।

" यदि जिहृ सहस्र स्याजीवेच्य शरदाम शतय

अनन्य कर्मा स्त्री दोषाननुक्त्वा निधनं व्रजेत  "




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