स्त्री प्रश्न : आज भी जिंदा हैं
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स्त्री मुक्ती कि जब भी चर्चा होती है तो पूरी बहस आकर मध्यम वर्गीय स्त्री पर केंद्रित हो जाती है । जहां उसका संघर्ष दैहिक स्वतंत्रता से लेकर आर्थिक स्वतंत्रता तक ही सिमटा हुआ पाते हैं ।
वास्तविकता यही है कि आज का समाज स्त्रीत्व को लेकर उसके चारों तरफ परंपरागत ढंग से उसको महिमामंडित कर उसके आसपास ऐसा जाल बुनता है कि स्त्री विमर्श के प्रश्न हाशिए पर ही रह जाते हैं ।
स्त्री ने अपने अनेक अधिकारों को भी प्राप्त किया है किंतु इसके अतिरिक्त अनेक क्षेत्र आज भी ऐसे हैं जहां स्त्री अस्मिता , अस्तित्व , मुक्ति आज भी गायब है । पारिवारिक छोटे-छोटे दकियानूसी मसलों व संकुचित संकीर्ण विचारों में पिसती स्त्री स्वयं की प्राथमिकताएं भूल जाती है ।
आज भी जिंदा है वे सभी प्रश्न जो स्त्री मुक्ति से जुड़े हुए हैं । स्त्री को उन सभी निरर्थक परंपराओं व मान्यताओं से मुक्ति चाहिए जिसने उसके अधिकारों व स्वतंत्रता को रोके रखा है ।
जन्म से लेकर मृत्यु तक पिता पति और पुत्र के साथ पैबंद जुड़े होते हैं । स्त्री को स्वयं के स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश परिवार संस्था के इस परंपरागत ढांचे में ही करनी पड़ेगी ।
विचारणीय है कि विवाह के बाद पत्नी का सब कुछ तो पति का हो जाता है लेकिन पति का सब कुछ पत्नी का क्यों नहीं हो पाता ,,,,, ??
उस पर जिम्मेदारियों का इतना अत्यधिक बोझ हो जाता है कि वह खुद के फैसले लेने के अधिकारों का झोला भी खाली हो जाता है ।
स्त्री को सामाजिकता के नाम पर तो कहीं व्यर्थ की परंपराओं के नाम पर व्यवस्थित रुप से बांधने का काम तो बखूबी किया जाता ही रहा है कि स्त्री इन सबके लिए सोचे या स्वयं के अस्तित्व की सोचे ।
इतना कहना काफी होगा कि आज की स्त्री ने स्वयं के व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए घर से बाहर नहीं निकली है ,,,, उसने यदि सुविधा को छोड़कर संघर्ष को चुनना पसंद किया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह देह से पहचान बनाना चाहती है बल्कि वह श्रम और बुद्धि से अपने अस्तित्व की रक्षा करना चाहती है।
मेरा स्वर ,,,,, रुग्ण हो चुकी मान्यताओं ,,, जर्जर हो चुकी परंपराओं के प्रति असंतोष वह मुक्ति का स्वर है । जो स्त्री की दोयम दर्जे की स्तिथि पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंडों , मुल्यों , प्रतिमानों व सोचने की दृष्टि पर सवालिया निशान लगाता है ।
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स्त्री मुक्ती कि जब भी चर्चा होती है तो पूरी बहस आकर मध्यम वर्गीय स्त्री पर केंद्रित हो जाती है । जहां उसका संघर्ष दैहिक स्वतंत्रता से लेकर आर्थिक स्वतंत्रता तक ही सिमटा हुआ पाते हैं ।
वास्तविकता यही है कि आज का समाज स्त्रीत्व को लेकर उसके चारों तरफ परंपरागत ढंग से उसको महिमामंडित कर उसके आसपास ऐसा जाल बुनता है कि स्त्री विमर्श के प्रश्न हाशिए पर ही रह जाते हैं ।
स्त्री ने अपने अनेक अधिकारों को भी प्राप्त किया है किंतु इसके अतिरिक्त अनेक क्षेत्र आज भी ऐसे हैं जहां स्त्री अस्मिता , अस्तित्व , मुक्ति आज भी गायब है । पारिवारिक छोटे-छोटे दकियानूसी मसलों व संकुचित संकीर्ण विचारों में पिसती स्त्री स्वयं की प्राथमिकताएं भूल जाती है ।
आज भी जिंदा है वे सभी प्रश्न जो स्त्री मुक्ति से जुड़े हुए हैं । स्त्री को उन सभी निरर्थक परंपराओं व मान्यताओं से मुक्ति चाहिए जिसने उसके अधिकारों व स्वतंत्रता को रोके रखा है ।
जन्म से लेकर मृत्यु तक पिता पति और पुत्र के साथ पैबंद जुड़े होते हैं । स्त्री को स्वयं के स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश परिवार संस्था के इस परंपरागत ढांचे में ही करनी पड़ेगी ।
विचारणीय है कि विवाह के बाद पत्नी का सब कुछ तो पति का हो जाता है लेकिन पति का सब कुछ पत्नी का क्यों नहीं हो पाता ,,,,, ??
उस पर जिम्मेदारियों का इतना अत्यधिक बोझ हो जाता है कि वह खुद के फैसले लेने के अधिकारों का झोला भी खाली हो जाता है ।
स्त्री को सामाजिकता के नाम पर तो कहीं व्यर्थ की परंपराओं के नाम पर व्यवस्थित रुप से बांधने का काम तो बखूबी किया जाता ही रहा है कि स्त्री इन सबके लिए सोचे या स्वयं के अस्तित्व की सोचे ।
इतना कहना काफी होगा कि आज की स्त्री ने स्वयं के व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए घर से बाहर नहीं निकली है ,,,, उसने यदि सुविधा को छोड़कर संघर्ष को चुनना पसंद किया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह देह से पहचान बनाना चाहती है बल्कि वह श्रम और बुद्धि से अपने अस्तित्व की रक्षा करना चाहती है।
मेरा स्वर ,,,,, रुग्ण हो चुकी मान्यताओं ,,, जर्जर हो चुकी परंपराओं के प्रति असंतोष वह मुक्ति का स्वर है । जो स्त्री की दोयम दर्जे की स्तिथि पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंडों , मुल्यों , प्रतिमानों व सोचने की दृष्टि पर सवालिया निशान लगाता है ।
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