स्त्री शक्ति

समाज में नारी का स्थान पण्य से अधिक कुछ नहीं
रहा ।  सामाजिक असंगति तो देखिए -------   मन की अपवित्रता क्षमा हो सकती है  परन्तु शरीर कि नहीं ,,,,।।

 मन की पवित्रता को झुठला कर तन की पवित्रता को ही मुख्यता देना जिन सामाजिक आचार धारणाओं का वास्तविक रुप शेष रह गया हो ,  ऐसी धारणाओं औरआचरणों को त्याग देना ही बेहतर है ।

 समाज में शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के विचार से पूर्ण स्वतंत्रता तो मिलनी चाहिए परंतु उच्छ्रंखलता और गड़बड़ियां भूख को पैशा बना लेने तथा इसके साथ अपनी वासना पूर्ति के लिए समाज की जीवन व्यवस्था  मैं अड़चन डालना ही भयंकर अपराध है ।।


 वर्तमान समय में नारी शिक्षा के प्रचार से नारी में आज आने वाली जागृति के परिणाम स्वरुप स्त्री ने न सिर्फ स्वयं के व्यक्तित्व को निखारा है बल्कि स्वयं के अस्तित्व को अनुभव करना प्रारंभ कर दिया है ।


 ऐसा लगता है कि उसी का नुकीला काटा पुरुष समाज के मन मस्तिष्क के मर्मस्थल पर चुभ गया है कांटा यदि निकाल भी दिया जाए तो भी उसकी जुबान पुरुष समाज अनुभव करता रहता है ।

  स्त्री के समान अधिकारों को सैद्धांतिक रूप में मानकर हमारे ग्रुप में लाते हुए पुरुष समाज सीट पर जाता है समाज की छोटी मान्यताएं तथा रूढ़ियां भी उसमें छटपटाती रह जाती है ।


 नाक भो सिकोड़ने वाले इस पुरुष समाज की अतृप्त ,  परंतु जागरुक सक्रिय प्रवृत्ति ही है कि  शुचिता ,  सात्विकता और गरिमा जैसी मान्यताएं स्त्री के  शोषण का कारण बनती आई है ।  यह थोथी परंपराये व रूढ़ियां स्त्री के अस्तित्व का अपहरण कर लेती है ।


 स्त्री को अगर समाज में जीना है तो अपने स्तर से उन्हें ऊपर उठना होगा स्वतंत्र निर्णय लेना होगा इसके लिए प्रचलित सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध उठ खड़ा होना होगा ।  अपने व्यक्तित्व का स्वयं निर्माण करना होगा ।

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