गृहणी
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संस्कृत में कहा गया है कि ---
" न गृह॑ गृह मित्याहो
गृहणी गृह मुच्ययाते ।।
अर्थात घर को घर नहीं कहते अपितु गृहणी को ही घर कहते हैं । कहा भी जाता है कि गृहणी के बिना घर में भूत का डेरा होता है ।
परंतु आज की परिस्थितियां कुछ भिन्न है ,, आज की कुछ स्त्रियां या यूं कहा जाए की बहुएं बिना कर्तव्य किए अधिकार की बात करती है । कहीं-कहीं अपनी सत्ता मनवाने के लिए स्त्रियों पर पुरुष द्वारा अत्याचार किया जाता है । तो कुछ स्त्रियां अपने सदियों पुरानी समाज के पितृसत्तात्मक पद्धति को चुनौती देती है तथा अपने अहंकार के कारण पति का महत्व भी भूल जाती है ।
एक समय था जब व्यक्ति संयुक्त परिवार में रहना पसंद करता था । परिवार में मेल-मिलाप होता था । लेकिन बदलते हुए आज आपाधापी के इस दौर में सारी व्यवस्था को उलट-पुलट कर रख दिया है । जीवन में संघर्ष करता हुआ मनुष्य सभी रिश्तो को भूल गया है ।
परिवार की स्त्री ( बहू ) को भी स्वयं के बच्चों या पति के अलावा किसी और का सुख-दुख नजर नहीं आता है।
आज की अधिकांश स्त्रियां स्वयं की जिंदगी जीने की कोशिश कर रही है । यहां तक कि उसे किसी दूसरे का जिंदगी में झांकना दखल अंदाजी लगने लगता है । इससे परस्पर रिश्तो की डोरी कमजोर होती चली जाती है और स्त्री की अलग तथा छोटा घर बनाने की लालसा परिवार के टूटने का कारण बन जाती है ।
हर एक को अपनी पड़ी है कि बस सब कुछ हमें मिल जाए वह स्त्री स्वतंत्र अधिकारों की लालसा विचारधारा में इतना आगे निकल जाती है कि पीछे मुड़कर देख नहीं पाती कि कितना कुछ वह खोती ही चली जा रही
है ।
एक बाप जिसने जाने कितने चाव से घर बनाया । लेकिन आज उस की आधारशिला की ईंटें इतनी कमजोर पड़ती जा रही है कि चाहे जितना उसकी मरम्मत करा ले वह आपस में मिल नहीं पाती ।
स्त्री अपने संस्कारों अपनी परंपराओं को ना भूलें । अपने परिवार के सदस्यों को अपना प्रतिद्वंदी ना समझे । विकास करना तो अच्छी बात है लेकिन विकास के नाम पर संस्कारों को तिलांजलि दे देना बहुत बड़ी बेवकूफी ओर नासमझी है । ।
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संस्कृत में कहा गया है कि ---
" न गृह॑ गृह मित्याहो
गृहणी गृह मुच्ययाते ।।
अर्थात घर को घर नहीं कहते अपितु गृहणी को ही घर कहते हैं । कहा भी जाता है कि गृहणी के बिना घर में भूत का डेरा होता है ।
परंतु आज की परिस्थितियां कुछ भिन्न है ,, आज की कुछ स्त्रियां या यूं कहा जाए की बहुएं बिना कर्तव्य किए अधिकार की बात करती है । कहीं-कहीं अपनी सत्ता मनवाने के लिए स्त्रियों पर पुरुष द्वारा अत्याचार किया जाता है । तो कुछ स्त्रियां अपने सदियों पुरानी समाज के पितृसत्तात्मक पद्धति को चुनौती देती है तथा अपने अहंकार के कारण पति का महत्व भी भूल जाती है ।
एक समय था जब व्यक्ति संयुक्त परिवार में रहना पसंद करता था । परिवार में मेल-मिलाप होता था । लेकिन बदलते हुए आज आपाधापी के इस दौर में सारी व्यवस्था को उलट-पुलट कर रख दिया है । जीवन में संघर्ष करता हुआ मनुष्य सभी रिश्तो को भूल गया है ।
परिवार की स्त्री ( बहू ) को भी स्वयं के बच्चों या पति के अलावा किसी और का सुख-दुख नजर नहीं आता है।
आज की अधिकांश स्त्रियां स्वयं की जिंदगी जीने की कोशिश कर रही है । यहां तक कि उसे किसी दूसरे का जिंदगी में झांकना दखल अंदाजी लगने लगता है । इससे परस्पर रिश्तो की डोरी कमजोर होती चली जाती है और स्त्री की अलग तथा छोटा घर बनाने की लालसा परिवार के टूटने का कारण बन जाती है ।
हर एक को अपनी पड़ी है कि बस सब कुछ हमें मिल जाए वह स्त्री स्वतंत्र अधिकारों की लालसा विचारधारा में इतना आगे निकल जाती है कि पीछे मुड़कर देख नहीं पाती कि कितना कुछ वह खोती ही चली जा रही
है ।
एक बाप जिसने जाने कितने चाव से घर बनाया । लेकिन आज उस की आधारशिला की ईंटें इतनी कमजोर पड़ती जा रही है कि चाहे जितना उसकी मरम्मत करा ले वह आपस में मिल नहीं पाती ।
स्त्री अपने संस्कारों अपनी परंपराओं को ना भूलें । अपने परिवार के सदस्यों को अपना प्रतिद्वंदी ना समझे । विकास करना तो अच्छी बात है लेकिन विकास के नाम पर संस्कारों को तिलांजलि दे देना बहुत बड़ी बेवकूफी ओर नासमझी है । ।
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Phle ka pariwar sanyukt hota tha to bht accha lagta tha lekin.aajkal sb chote pariwar me bandh k reh gaye hain..
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