परिवार : एक पवित्र संस्था ।
" आनंद पाने से अधिक बांटने में मिलता है । "
वर्तमान समय में मध्यम वर्गीय समाज के जीवन को परिचालित व प्रेरित करने वाली नयी प्रवृतियों विचारधाराओं व शक्तियों का उद्घाटन हुआ है ।
पुराने बंधन अब जीवन का आधार नहीं रहे विकासशील शक्तियां और प्रतिक्रियावादी ताकतों सच और झूठ एवं नए-पुराने का भीषण निर्दय संघर्ष वर्तमान समय में देखा जा सकता है ।
परिवार एक पवित्र तथा उपयोगी संस्था है । लेकिन वर्तमान समय में इस दृष्टिकोण में परिवर्तन होता जा रहा है । परिवार के सभी सदस्य भी अपनी अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति में लगे रहते हैं । वस्तुतः पारिवारिक जीवन में कलह असंतोष , खिन्नता और उदासी की परिस्थितियां बन जाती है कहीं-कहीं तो यह विकराल रूप भी ले लेती है ।
स्त्री के बिना परिवार की कल्पना भी असंभव है । लेकिन वर्तमान समय में स्त्री की भूमिका भी बदल रही है । वह ना तो पहले की तरह त्याग और संतोष जैसे गुणों को अपनाना चाहती है और ना ही अपने परिवार के सुख और दुख को अपना बनाना चाहती है ।
परिवार की प्रतिष्ठा हमारी प्रतिष्ठा , परिवार की उन्नति हमारी उन्नति ,,,, उसकी लाभ हानि हमारी लाभ हानि ही तो परिवार का का विशेष लक्षण है ,,,, और आज इसी सच्ची पारिवारिक भावना के अभाव में ही परिवार टूटते बिखरते जा रहे हैं ।
स्त्री का परिवार से अलग अस्तित्व हो ही नहीं सकता । वही स्वयं सच्चे प्रेम और सच्ची आत्मीयता के बल पर अपने परिवार को बांध सकती है ।
स्त्री ही परिवार को संजोती है घर की व्यवस्था रोचक मनोरम तथा प्रसन्नता पूर्ण बनी रहे प्रयास करती है ।
लेकिन कुछ स्त्रियां " टिड्डी दल " की भांति होती है ।
यदि स्त्री स्वार्थी , क्रोधी और कर्कश हो तो वहां प्रगाढ़ आत्मीयता का अभाव स्वभाविक है । वहां रिश्ते औपचारिक हो जाते हैं और उनमें बनावटीपन बना रहता है ।
" मेरे रहते किसी को दुख तकलीफ ना हो । " जैसी भावना का परित्याग कर अपने स्वार्थ पूर्ति में लगी रहती है तो पारिवारिक संस्था में पारस्परिक सहयोग का भाव भी समाप्त हो जाता है ।
आज के जीवन की सबसे बड़ी विसंगति यह भी है कि स्त्री का अपने मायके से मोह । मायके का वजूद या अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सकता परंतु यहां स्त्री को भी अपनी भावनाओं को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है क्योंकि वह स्वयं अपने ही घर परिवार को बिखेर देती है । उसके इस उद्दंडतापूर्वक व्यवहार से ना सिर्फ पारिवारिक लगाव समाप्त होता है वरन झगड़े भी उत्पन्न हो जाते हैं । वह मायके के मोह से इस प्रकार ग्रसित हो जाती है कि वह ससुराल वालों को कदम कदम पर तिरस्कृत करने से बाज नहीं आती ।
इतना ही नहीं स्त्री स्वयं की साज-सज्जा , श्रृंगार , फैशन , पाउडर , लिपस्टिक और गहनों में ही अत्यधिक रुचि रखती है और सास ननंद देवरानी-जेठानी आदि से हमेशा लड़ती झगड़ती रहती है । उसको सिर्फ स्वयं का विलास प्रिय जीवन ही रास आता है । उसके स्वभाव में असहयोग व विवाद कूट-कूट कर भरे होते हैं । वही व्यवहार स्वभाविक रुप से उनके बच्चों में भी पाया जाता है ।
यदि स्वयं स्त्री अधिक से अधिक सादगी और शालीनता से रहे तो स्वभाविक रुप से बच्चे भी प्रेम पूर्ण व्यवहार करना सीख जाएंगे और त्याग , सहयोग का महत्व भी समझेंगे ।
संबंधों में जुड़ाव , विश्वास , आपसी संबंध बनाए रखने के लिए कुछ त्याग तो करने पड़ेंगे ।
वर्तमान समय में जीवन के विभिन्न समस्याओं विडंबनाओं उन्नति अवनति , सुख-दुख , नैतिकता अनैतिकता , मानवता वादी जीवन दर्शन के निर्देशों का रुख बदल गया है ।
परंतु आज आवश्यकता है कि दम तोड़ रहे रिश्तो को तिरस्कृत संबंधों को मान देना होगा । स्त्री को अपने निजी स्वार्थ की प्रवृत्ति को त्यागना होगा । स्वयं की श्रेष्ठता को सजाने और संवारने के बजाय थोड़ा ध्यान हटाकर परिवार को संवारने में जुट जाएं तो संस्कार रूपी जल से परिवार रूपी पेड़ का संवर्धन किया जा सकता है ।
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