** मानवी **

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       " स्त्री नही आज मानवी बन गई तुम निश्चित । "

          (   चिदम्बरा ,  सुमित्रानंदन पंत   )



आवश्यकता है उन सामाजिक धार्मिक रूढ़िवादी परंपराओं और उन्हें प्रश्रय देने वालों के चेहरों से मुखोटे उतारना ।  जो स्त्री के वजूद ,  उसकी अस्मिता ,  उसके सामाजिक हैसियत ,,,, पुरुष वर्चस्व और पुरुष मानसिकता के चलते देह से लेकर हर स्तर तक शोषण किया करते हैं ।

 स्त्री प्रश्न को यदि ऐतिहासिक क्रम में देखा जाए तो पाएंगे कि वर्ण व्यवस्था ने स्त्री को अधिकार विहीन बनाया  ,,, जाति व्यवस्था ने पंगु बनाया ,,, और पूंजीवादी व्यवस्था ने उसे माल बना दिया  ।

 आधुनिक नारी अपने जीवन का लक्ष्य और महत्वाकांक्षा केवल पति सेवा और अधिक से अधिक संतानों की माता बनना,,, नहीं मान सकती वह आत्मनिर्भरता स्वतंत्रता और अपने व्यक्तित्व की सार्थकता भी चाहती है  ।

 पुरुषवादी समाज का यह सवाल कि  " स्त्री स्वतंत्र होकर क्या करेगी ,,,, ??  "

 लेकिन यदि पुरुष वैचारिक या व्यवहारिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्री की मानसिक सामाजिक स्थिति का स्वयं आंकलन करें तो वह स्त्री मुक्ति का प्रेरक बन सकता है ।  स्वतंत्रता अर्जित करना स्त्री मुक्ति संबंधी प्रथम सरोकार है  जिसमें स्त्री की अपनी जिंदगी को देखने और जीने की अपनी दृष्टि और शर्ते हो ।

 स्त्री का स्वयं का भी व्यक्तित्व और अस्तित्व होता है परंतु वास्तविक रूप में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री कब भौतिक गुलामी से मानसिक रूप से गुलाम बन जाती है उसे स्वयं आभास भी नहीं होता ।


 क्यों ना हो ,,,,  पुरुष समाज ने ऐसी आदर्श स्त्री की परिकल्पना गड़ी हुईं है  ,,, जिसमें सर्वप्रथम और सर्वोपरि गुण तरीका माना गया है ---  कम बोलना ,  मीठा बोलना और संभव हो तो ना बोलना ।

 स्त्री भी सामाजिक भय के कारण निभाते जाने की मजबूरी   सहने को विवश है ।  उस पर आर्थिक आत्मनिर्भरता ना होने के कारण विकल्पहीनता की स्थिति में समर्पण और त्याग की आडंबर की फ्रेम में जड़ कर रह जाती है ।


 यदि स्त्री पति की या परिवार की इच्छा के विरुद्ध आत्मविश्वास के साथ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनती है या सार्वजनिक कार्यों में भाग लेकर अपने व्यक्तित्व का विकास करती है तो प्राचीन और परंपरागत मान्यता के प्रचारक पति और उसके परिवार के अहम को ठेस लगती है ।

 स्त्रियां तो रही ही है पुरुषों के व्यक्तिगत इस्तेमाल की चीज  और यदि वह अपने व्यक्तित्व को अलग से खड़ा करने की जरा भी चेष्टा करेंगी तो उंगली जरूर
 उठेगी ,,,,  ।


 इस शोषणकारी व्यवस्था में यदि कोई स्त्री भूले से भी सतीत्व के स्थान पर अस्तित्व की मांग समाज से कर बैठती है या फिर अपनी सामाजिक व सांस्कृतिक राहें स्वयं निर्धारित करके वस्तु से प्राणी नहीं ,,,  प्राणी से मनुष्य रूप में जीने की मांग करती है तो यह पितृसत्ता स्त्री को उसकी औकात बताने वाले मंत्र श्लोक सुनाकर बोल्ड बनाम बेहया का खिताब भी दे देती है ।

 परंतु आधुनिक स्त्री इन घात प्रतिघात ों को न सिर्फ सहती है  वरन उन चुनौतियों को स्वीकार भी करती है ओर अंत तक हार नहीं मानती ।

 पुरुषों को भी सहने का अभ्यास कर लेना चाहिए कि स्त्रियां भी अपना व्यक्तित्व रखती है ।



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