स्त्री : जीवन शक्ति का आधार
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माखनलाल चतुर्वेदी ने मुख्यतः क्रांतिकारी और गांधीवादी कवि होते हुए भी धार्मिक अंधविश्वासों एवं पुरानी मान्यताओं पर कठोर प्रहार किया है ----
" हम हैं नहीं रूढ़ि की पुस्तक के पथरी ले भार
नित नवीनता के हम हैं जग के मौलिक उपहार ।"
जीवन और अनुभूति के साथ-साथ आवश्यक है स्वयं के अस्तित्व में व्यक्तिगत स्वतंत्रता व्यक्तिगत निर्णय की महत्ता हो जिसमें जीवन रहने की क्षमता हो ।
वर्तमान युग में स्त्रियों को पुरुषों के समान ही सामाजिक व राजनीतिक अधिकार मिलने लगे हैं परंतु स्त्री की पराश्रयता जारी है । स्त्री को भले ही पुरुष का दास ना कह कर उसका साथी ' कहा जाता है लेकिन साथ ही उसे उपदेश भी दिया गया है कि उसे पुरुष के आश्रय में ही रहना चाहिए ।
समाज में जीवन निर्वाह का ऐसा ढंग बना दिया गया कि स्त्री व्यक्ति की संपत्ति और मिल्कियत ही रहेगी वह पुरुष के अधीन रहकर उसका वंश चलाने व उसके उपयोग , भोग की वस्तु ही बनी रहेगी ।
कहीं - कही तो सदाचार धार्मिक सामाजिक नियमों ने स्त्री को निर्बल बनाकर वह दयनीय बताकर दया दिखाने का व्यवहार भी किया ।
आधुनिक युग में समाज का पूर्ण विकास कर चुकने के बाद भी स्त्री के श्रम का मूल्य पुरुष के श्रम के समान नहीं समझा जाता और अनेक क्षेत्र उसके लिए वर्जित भी हैं ।
स्त्रियां भी पुरुषों की तरह मनुष्य है और उनके कंधों पर भी समाज का उतना ही उत्तरदायित्व है जितना कि पुरुषों के कंधे पर ।
फिर क्यों ,,,,,, समाज के तंग होते हुए दायरे से अपनी शारीरिक निर्बलता के कारण ,,,,, जिस गुण के कारण वह समाज को उत्पन्न करती है ,,,,, समाज में स्वतंत्र स्थान पाकर केवल पुरुष के शिकार की वस्तु बन जाती है ,,,, ??
स्त्री की खोपड़ी में भी पुरुष की तरह सोचने विचारने और उपाय ढूंढ निकालने की सामर्थ्य है इसलिए पुरुष समाज ने उसे गले में नैतिकता की रस्सी बांध स्त्री के व्यवहार पर ऐसे प्रतिबंध भी लगाए जिससे स्त्री पुरुष के अधीन बनी रहे ।
उसे धर्म रीति रिवाज परंपराओं के अधीन होकर चलने की शिक्षा दी गई । पराधीनता और शासन को स्वयं स्वीकार करना ही उसके लिए सम्मान व आदर की कसौटी बन गया ।
यह प्रवंचना कब तक चलेगी ,,,,, ???
मैं स्त्री विमर्श के प्रति समर्पण स्वीकार करती हूं अपनी संपूर्ण शक्ति को इस विमर्श के प्रति ' देय ' स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं ।
वाद विचारधाराएं तो बदलते ही रहते हैं परंतु सत्य नहीं बदलता इस बात में संदेह का अवसर नहीं ।
रात भर में तालाब में चाहे कितने हाथ पानी चढ़ जाए परंतु कमल के पत्ते जल से ऊपर ही रहेंगे ,,, !!
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माखनलाल चतुर्वेदी ने मुख्यतः क्रांतिकारी और गांधीवादी कवि होते हुए भी धार्मिक अंधविश्वासों एवं पुरानी मान्यताओं पर कठोर प्रहार किया है ----
" हम हैं नहीं रूढ़ि की पुस्तक के पथरी ले भार
नित नवीनता के हम हैं जग के मौलिक उपहार ।"
जीवन और अनुभूति के साथ-साथ आवश्यक है स्वयं के अस्तित्व में व्यक्तिगत स्वतंत्रता व्यक्तिगत निर्णय की महत्ता हो जिसमें जीवन रहने की क्षमता हो ।
वर्तमान युग में स्त्रियों को पुरुषों के समान ही सामाजिक व राजनीतिक अधिकार मिलने लगे हैं परंतु स्त्री की पराश्रयता जारी है । स्त्री को भले ही पुरुष का दास ना कह कर उसका साथी ' कहा जाता है लेकिन साथ ही उसे उपदेश भी दिया गया है कि उसे पुरुष के आश्रय में ही रहना चाहिए ।
समाज में जीवन निर्वाह का ऐसा ढंग बना दिया गया कि स्त्री व्यक्ति की संपत्ति और मिल्कियत ही रहेगी वह पुरुष के अधीन रहकर उसका वंश चलाने व उसके उपयोग , भोग की वस्तु ही बनी रहेगी ।
कहीं - कही तो सदाचार धार्मिक सामाजिक नियमों ने स्त्री को निर्बल बनाकर वह दयनीय बताकर दया दिखाने का व्यवहार भी किया ।
आधुनिक युग में समाज का पूर्ण विकास कर चुकने के बाद भी स्त्री के श्रम का मूल्य पुरुष के श्रम के समान नहीं समझा जाता और अनेक क्षेत्र उसके लिए वर्जित भी हैं ।
स्त्रियां भी पुरुषों की तरह मनुष्य है और उनके कंधों पर भी समाज का उतना ही उत्तरदायित्व है जितना कि पुरुषों के कंधे पर ।
फिर क्यों ,,,,,, समाज के तंग होते हुए दायरे से अपनी शारीरिक निर्बलता के कारण ,,,,, जिस गुण के कारण वह समाज को उत्पन्न करती है ,,,,, समाज में स्वतंत्र स्थान पाकर केवल पुरुष के शिकार की वस्तु बन जाती है ,,,, ??
स्त्री की खोपड़ी में भी पुरुष की तरह सोचने विचारने और उपाय ढूंढ निकालने की सामर्थ्य है इसलिए पुरुष समाज ने उसे गले में नैतिकता की रस्सी बांध स्त्री के व्यवहार पर ऐसे प्रतिबंध भी लगाए जिससे स्त्री पुरुष के अधीन बनी रहे ।
उसे धर्म रीति रिवाज परंपराओं के अधीन होकर चलने की शिक्षा दी गई । पराधीनता और शासन को स्वयं स्वीकार करना ही उसके लिए सम्मान व आदर की कसौटी बन गया ।
यह प्रवंचना कब तक चलेगी ,,,,, ???
मैं स्त्री विमर्श के प्रति समर्पण स्वीकार करती हूं अपनी संपूर्ण शक्ति को इस विमर्श के प्रति ' देय ' स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं ।
वाद विचारधाराएं तो बदलते ही रहते हैं परंतु सत्य नहीं बदलता इस बात में संदेह का अवसर नहीं ।
रात भर में तालाब में चाहे कितने हाथ पानी चढ़ जाए परंतु कमल के पत्ते जल से ऊपर ही रहेंगे ,,, !!
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लाजवाब
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