स्त्री अधिकार चाहती है .... भिक्षा नही !!
पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति के चलते स्त्री की छवि को सीधे-सीधे प्रश्नों के घेरे में डाला गया है ।
रघुवीर सहाय की पुस्तक 'सीढ़ियों पर धूप ' में से यह पंक्तियां देखिए---
पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सब में लगा पलीता किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घर बसाइये
होय कटीली
आंखें गीली
लकड़ी सिली ,तबीयत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भर भर भात पसाइये ,,,??
स्त्री की छवि सत्य यही रही है कि वह सीता की तरह हो लेकिन प्रश्न यह है कि सीता की तरह होना क्या है ।
नारी के पीछे पीछे चलते हुए देखने की अहंकारी पुरुष प्रवृत्ति पर चोट ---- यह --- ओह , भारतीय स्त्री ! तुझे मेरी करुणा की कितनी जरूरत है ।
यह स्त्री विमर्श स्त्री के इंसान होने की सही और सहज सत्ता की खोज और स्थापना का है । वर्णन अलग अलग हो सकते हैं ,,,, शैली भी अलग हो सकती है,,,, लेकिन स्त्री को उचित ही इंसान के रूप में देखना , पकड़ना और पाना है ।
पुरुष के द्वारा स्त्री को प्राय करुणा की वस्तु के रूप में देखने और चित्रित करने का विरोध है ।
स्त्री के ताकतवर रूप को भले ही प्रकट रूप में कम ही सामने आने का अवसर मिला हो लेकिन इसे चित्रित करने में पुरुष का लेखन भी कतराता रहा है ।
और तो और देखिए--- हमारे धर्म ग्रंथों ने उसे एक तरफ तो देवी के समकक्ष स्थान दिया है और दूसरी तरफ उसे पुरुष के पथ भ्रष्ट होने का कारण भी माना गया ।
समझ नहीं आता कि इन दो ध्रुवालों के बीच श्री की इंसानी हकीकत कहां है ,,,,??
' मंजू गुप्ता 'की कविता की इन व्यंग्यात्मक पंक्तियों पर जरा गौर फरमाइए ----
"पति का लाड प्यार पाने के लिए जरूरी है,
थोड़ा मूर्ख ,
थोड़ा नादान होना ,
हर बात में सहारा ढूंढना ,
सलाह लेना ,
पत्नी का अटूट आत्मविश्वास , पति के अहंकार पर बजता है , हथौड़े सा 'टन'
और उसका सोचा आत्मविश्वास , उद्धत करती है पुरुषत्व , "
लेकिन यह कटु सत्य है कि जो पुरुषों की आदत के रूप में टकराता रहता है ।
इतना ही नहीं प्रश्न यह भी किया जा सकता है कि हमारे धर्म शास्त्रों और पुरुष वर्चस्व समाज में सुहागिन स्त्रियों को ही सभी जेवर धारण करने की बाध्यता है तो सुहागे मर्दों को क्यों नहीं,,,,??
क्योंकि हिंदुस्तानी मर्दो के प्राण क्या स्त्रियों द्वारा धारण किए गए जेवरो में निहित है ,,,,??
और यदि यह सत्य है तो वह विवाह से पहले तक किसके शगुन से जीता रहा है ,,,??
और स्त्री की मृत्यु के बाद वह मर क्यों नहीं जाता ,,,??
भारी भरकम जड़ाऊ गहनों की बात यदि कहीं जाए तो अनायास टीवी सीरियलों में दिखाई जाने वाली स्त्री याद आ जाती है । यह स्त्री जिस आत्मनिर्भर मुक्त स्त्री की नई छवि को बनाती है । वह नकारात्मक , सकारात्मक तिरस्करनीय , वरेण्य हो । परंतु क्या यह स्त्री वाकई मुक्त आत्मनिर्भर शिक्षित और नैतिक रूप से दृढ़ विवेकशील प्राणी है । यह प्रश्न व्यूह उसके चारों ओर मंडराता रहता है ।
करुणा नहीं ,, अनुभूति चाहिए स्त्री को तभी प्रेरणा देने वाली आवाहन करने वाली और आग लगाने वाला कविताएं और लेखन होगा ।
आज की स्त्री मां , बेटियां , प्रेमिका तो कभी सिर्फ लड़कियां औरतें , मेहरारू बनकर रोती कलपती नहीं है ,,,, वह सुलगती धुँआती नही है ,,,,, और कोयला और राख नहीं होती है ,,,,।।
स्त्री के पिछड़ेपन का बहुत कुछ दायित्व पुरुष पर है । स्त्री बिना पुरुष की सहायता के घर से बाहर नहीं निकल सकती ,,, क्यों,,,,?? क्योंकि पुरुष ने उसे देवी देवी कहकर किसी काम के योग्य रखा ही नहीं है ।
नारी की प्रतिमा युगानुरूप बदलती रही है अब आज की स्त्री पढ़ी-लिखी कल्चरड और पहले से कहीं ज्यादा स्वतंत्र है । आधुनिक स्त्री अपनी अस्मिता की खोज में प्रवृत्त है । वर्तमान समाज की स्त्री पुरुष से अपमानित होकर भी या आर्थिक कठिनाइयों से टूटती नहीं है । वरन् अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए यथासंभव संघर्ष करती है । दांपत्य जीवन में भी पति के परंपरागत एकाधिकार और निरंकुशता की तीखी प्रक्रिया आधुनिक स्त्री के मानस में है ।
अपने व्यक्तित्व विकास के लिए सजग आधुनिक स्त्री पति से भी एक नए प्रकार का विश्वास और आचरण मांगती है ।
आज आर्थिक स्वातंत्र्य की चेतना ने भी उसे पुरुष के शासन को अस्वीकार करने का साहस दिया है ।
यह बात अलग है कि पुरुष भी परंपरागत व्यवहार से भिन्न उसके व्यक्तित्व को स्वीकार करता हुआ उसके विकास में सहायक होने लगा है । पुरुष भी आज स्वाबलंबी स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करने लगा है । एक दूसरे की सहायता की भावना समाज में प्रचार पाने लगी है । इस कमरतोड़ महंगाई में यदि स्त्री पुरुष की मदद नहीं करेगी तो स्त्री पुरुष के संबंधों में सचमुच बड़ा संकट उपस्थित हो जाएगा ।
भले ही स्त्री मुक्ति को संदेह की दृष्टि से देखा जाता हो ,,,,, भले ही स्त्री को दबी घुटी आश्रित देखने के अभ्यस्त समाज को उसका यह नया रूप स्वीकार करने में संकोच होता हो ,,,,या फिर स्त्री के स्वार्थी होने का लांछन ही लगा दिया गया हो ,,,,,
परंतु फिर भी इन प्राचीन आदर्शों पर स्त्री जागृति ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
क्योंकि आज की स्त्री अधिकार चाहती है ,,,,, भिक्षा नहीं ,,,,।।
रघुवीर सहाय की पुस्तक 'सीढ़ियों पर धूप ' में से यह पंक्तियां देखिए---
पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सब में लगा पलीता किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घर बसाइये
होय कटीली
आंखें गीली
लकड़ी सिली ,तबीयत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भर भर भात पसाइये ,,,??
स्त्री की छवि सत्य यही रही है कि वह सीता की तरह हो लेकिन प्रश्न यह है कि सीता की तरह होना क्या है ।
नारी के पीछे पीछे चलते हुए देखने की अहंकारी पुरुष प्रवृत्ति पर चोट ---- यह --- ओह , भारतीय स्त्री ! तुझे मेरी करुणा की कितनी जरूरत है ।
यह स्त्री विमर्श स्त्री के इंसान होने की सही और सहज सत्ता की खोज और स्थापना का है । वर्णन अलग अलग हो सकते हैं ,,,, शैली भी अलग हो सकती है,,,, लेकिन स्त्री को उचित ही इंसान के रूप में देखना , पकड़ना और पाना है ।
पुरुष के द्वारा स्त्री को प्राय करुणा की वस्तु के रूप में देखने और चित्रित करने का विरोध है ।
स्त्री के ताकतवर रूप को भले ही प्रकट रूप में कम ही सामने आने का अवसर मिला हो लेकिन इसे चित्रित करने में पुरुष का लेखन भी कतराता रहा है ।
और तो और देखिए--- हमारे धर्म ग्रंथों ने उसे एक तरफ तो देवी के समकक्ष स्थान दिया है और दूसरी तरफ उसे पुरुष के पथ भ्रष्ट होने का कारण भी माना गया ।
समझ नहीं आता कि इन दो ध्रुवालों के बीच श्री की इंसानी हकीकत कहां है ,,,,??
' मंजू गुप्ता 'की कविता की इन व्यंग्यात्मक पंक्तियों पर जरा गौर फरमाइए ----
"पति का लाड प्यार पाने के लिए जरूरी है,
थोड़ा मूर्ख ,
थोड़ा नादान होना ,
हर बात में सहारा ढूंढना ,
सलाह लेना ,
पत्नी का अटूट आत्मविश्वास , पति के अहंकार पर बजता है , हथौड़े सा 'टन'
और उसका सोचा आत्मविश्वास , उद्धत करती है पुरुषत्व , "
लेकिन यह कटु सत्य है कि जो पुरुषों की आदत के रूप में टकराता रहता है ।
इतना ही नहीं प्रश्न यह भी किया जा सकता है कि हमारे धर्म शास्त्रों और पुरुष वर्चस्व समाज में सुहागिन स्त्रियों को ही सभी जेवर धारण करने की बाध्यता है तो सुहागे मर्दों को क्यों नहीं,,,,??
क्योंकि हिंदुस्तानी मर्दो के प्राण क्या स्त्रियों द्वारा धारण किए गए जेवरो में निहित है ,,,,??
और यदि यह सत्य है तो वह विवाह से पहले तक किसके शगुन से जीता रहा है ,,,??
और स्त्री की मृत्यु के बाद वह मर क्यों नहीं जाता ,,,??
भारी भरकम जड़ाऊ गहनों की बात यदि कहीं जाए तो अनायास टीवी सीरियलों में दिखाई जाने वाली स्त्री याद आ जाती है । यह स्त्री जिस आत्मनिर्भर मुक्त स्त्री की नई छवि को बनाती है । वह नकारात्मक , सकारात्मक तिरस्करनीय , वरेण्य हो । परंतु क्या यह स्त्री वाकई मुक्त आत्मनिर्भर शिक्षित और नैतिक रूप से दृढ़ विवेकशील प्राणी है । यह प्रश्न व्यूह उसके चारों ओर मंडराता रहता है ।
करुणा नहीं ,, अनुभूति चाहिए स्त्री को तभी प्रेरणा देने वाली आवाहन करने वाली और आग लगाने वाला कविताएं और लेखन होगा ।
आज की स्त्री मां , बेटियां , प्रेमिका तो कभी सिर्फ लड़कियां औरतें , मेहरारू बनकर रोती कलपती नहीं है ,,,, वह सुलगती धुँआती नही है ,,,,, और कोयला और राख नहीं होती है ,,,,।।
स्त्री के पिछड़ेपन का बहुत कुछ दायित्व पुरुष पर है । स्त्री बिना पुरुष की सहायता के घर से बाहर नहीं निकल सकती ,,, क्यों,,,,?? क्योंकि पुरुष ने उसे देवी देवी कहकर किसी काम के योग्य रखा ही नहीं है ।
नारी की प्रतिमा युगानुरूप बदलती रही है अब आज की स्त्री पढ़ी-लिखी कल्चरड और पहले से कहीं ज्यादा स्वतंत्र है । आधुनिक स्त्री अपनी अस्मिता की खोज में प्रवृत्त है । वर्तमान समाज की स्त्री पुरुष से अपमानित होकर भी या आर्थिक कठिनाइयों से टूटती नहीं है । वरन् अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए यथासंभव संघर्ष करती है । दांपत्य जीवन में भी पति के परंपरागत एकाधिकार और निरंकुशता की तीखी प्रक्रिया आधुनिक स्त्री के मानस में है ।
अपने व्यक्तित्व विकास के लिए सजग आधुनिक स्त्री पति से भी एक नए प्रकार का विश्वास और आचरण मांगती है ।
आज आर्थिक स्वातंत्र्य की चेतना ने भी उसे पुरुष के शासन को अस्वीकार करने का साहस दिया है ।
यह बात अलग है कि पुरुष भी परंपरागत व्यवहार से भिन्न उसके व्यक्तित्व को स्वीकार करता हुआ उसके विकास में सहायक होने लगा है । पुरुष भी आज स्वाबलंबी स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करने लगा है । एक दूसरे की सहायता की भावना समाज में प्रचार पाने लगी है । इस कमरतोड़ महंगाई में यदि स्त्री पुरुष की मदद नहीं करेगी तो स्त्री पुरुष के संबंधों में सचमुच बड़ा संकट उपस्थित हो जाएगा ।
भले ही स्त्री मुक्ति को संदेह की दृष्टि से देखा जाता हो ,,,,, भले ही स्त्री को दबी घुटी आश्रित देखने के अभ्यस्त समाज को उसका यह नया रूप स्वीकार करने में संकोच होता हो ,,,,या फिर स्त्री के स्वार्थी होने का लांछन ही लगा दिया गया हो ,,,,,
परंतु फिर भी इन प्राचीन आदर्शों पर स्त्री जागृति ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
क्योंकि आज की स्त्री अधिकार चाहती है ,,,,, भिक्षा नहीं ,,,,।।
Very nice article mem
ReplyDeleteHaw mangne see nahin milta, Chhinana padta hai!
ReplyDelete💐🙏
Anupam lekhan, #Yathharth se paripurn!