स्त्री प्रश्न
भोजपुरी में एक कहावत कही जाती है ----
त्रिया जन्म मत देबू हो विधाता "
नारी चाहे वह मां के रूप में तथा सृष्टि के सृजन कर्ता के रूप में हो या बच्चों की पालनहार मां का ममत्व अथवा एक पत्नी के रूप में सृष्टि के प्रारंभ से ही स्त्री अपनी भूमिका बखूबी निभा रही है ।
आज की स्त्रियां शिक्षा के क्षेत्र में भी बढ़ोतरी कर रही है । लेकिन शिक्षित महिलाओं के साथ भी इस सभ्य पुरुष समाज में अपराधों की संख्या कम नहीं हो पा रही है । मैंने सभ्य पुरुष इसलिए कहा क्योंकि सारी सभ्यता का ठेका तो सिर्फ पुरुष वर्ग ने ही ले रखा है ना ,,,,!!!
हम आज भी देखते हैं कि लड़कियों के साथ जो भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है । यदि संतान लड़की के रूप में जन्मी हो तो परिवार पर दुख के बादल मंडराने लगते हैं । आज आधुनिक समाज में समय का तकाजा है कि दकियानूसी बातों को त्याग कर वर्तमान में जिए आज के इस समाज को निडर शिक्षित समझदार और पहल करने वाली स्त्री की आवश्यकता है ।
स्त्री को भी अपने अस्तित्व को स्थिर रखने के लिए त्याग को छोड़कर स्वयं का विकसित करना होगा क्योंकि स्त्री हमेशा से ही त्याग की मूर्ति रही है परिवार के लिए जो कुछ भी त्याग करती है परिवार उसे त्याग को कोई महत्व नहीं देता इतना ही नहीं अपने स्तर पर उसे आगे चलने पढ़ने के लिए भी छोड़ दिया जाता है ।
आज भी अगर बात कही जाए तो हमारे भारतीय स्त्रियों को अपने अधिकारों से संबंधित महिला दिवस जो 8 मार्च को मनाया जाता है के बारे में जानकारी ही नहीं है ।
इतना ही नहीं भारतीय समाज में हिंदू स्त्री अपनी स्वतंत्रता से ज्यादा अपने सुहाग को महत्व देती है । उनका पालन-पोषण ही इस ढंग से किया जाता है कि पति चाहे जैसा हो शादी के बाद पति ही उसका परमेश्वर है और इन्हीं संस्कारों के कारण वह स्वयं की इच्छा स्वतंत्रता और अधिकार सब कुछ अपने पति के हवाले कर देती है इतना ही नहीं पति की मृत्यु के पश्चात पति कि चिता पर जिंदा लेट कर अपनी जान देनी पड़ जाती है इसके लिए धर्म के ठेकेदार व द्वारा यह तर्क दिया जाता था के पति की मृत्यु के बाद पत्नी का क्या अस्तित्व है,,,,,???
पति की मृत्यु के बाद यदि पत्नी दूसरा विवाह कर लेती है तो -- वह धर्म के ठेकेदारों द्वारा "अनैतिक संबंध " किसी "पर" पुरुष के साथ हो जाएगा और यह धर्म के खिलाफ है । इसलिए स्त्री को पति की मृत्यु के बाद जिंदा रहने का कोई अधिकार नहीं है ।
विडंबना तो देखिए पत्नी की मृत्यु के पश्चात उसका पति कभी उसकी चिता पर लेट कर अपनी जान नहीं देता था ।
सोचिए जरा---- विवाह का अर्थ यदि पति कि लाते खाकर उन चरणों को पूछना है तो सवाल विवाह संस्था के प्रति उठ जाता है और स्वभाविक विरोध भी । फिर हिंदू महिला विधवा पुनर्विवाह का क्या अर्थ तब तो पुरुष की हर रोज मार खाने से रांड रहना ही अच्छा है ।
सरला : एक विधवा की आत्म जीवनी को प्रज्ञा पाठक ने कथादेश में प्रकाशित कराया----
जैसे गन्ने का रस निकाल लेने से छिलका रह जाता है वैसे ही हमारी हालत है ।
अब हमको खुद इस जेल खाने से निकलने की तदबीर करनी चाहिए। "
भले ही सती प्रथा हमारे देश में समाप्त हो गई हो किंतु हिंदू घरों में आज भी विधवाओं को तिल तिल जलाकर सती करते रहने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है ।
पुरुष समाज ने अपनी सुविधा के अनुसार पूरे समाज के ताने-बाने को बोल रखा है यदि एक पति अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात शादी जल्द ही कर सकता है और दूसरी के मौत के बाद तीसरी भी आसानी से कर सकता है परंतु यदि कोई शादीशुदा महिला विधवा हो जाती है तो वह दूसरी शादी करने के बारे में सोचने से भी डरती है ।
चाहे किसी भी रूप में हो स्त्री ही हमेशा पीड़िता रही है समाज के लिए सब कुछ करने के पश्चात भी हमेशा स्त्री को ही दोषी ठहराया जाता रहा है ।
दूसरी ओर इस बात से भी आहत हूं कि शाप ग्रसता ऋषि पत्नी अहिल्या के समान आज की स्त्री भी पुरुष के चरणों में ही मुक्ति खोजती है । मुक्त रहकर भी बंधे रहने की पीड़ा आज भी झेल रही है । आखिर क्यों बदल नहीं पाती उधार की मुक्ति को पुकार की उस भाषा को ।
आज भी स्त्री स्वयं की चेतना से सवाल पूछती है और अपना अपराध पूछती है तत्पश्चात एक सत्य उद्घाटित हो उठता है । पता नहीं पुरुष कौन सा रूप धर लेगा सर्वप्रथम प्रेमी से पति बनकर,,, सहायक से सृजन का और फिर,,, हृदय हीन होकर दंड विधायक बनकर पीड़ा प्रदान कर देगा ,,,!!
स्त्री प्रश्न आज भी कचरे में पड़ा है ,,,,!!!
और समाज आज भी मौन है ,,,,!!
प्रश्न यह है कि कब तक पुरुष प्रधान समाज स्त्री पक्ष को सुनना और समझना नहीं चाहेगा ......????
त्रिया जन्म मत देबू हो विधाता "
नारी चाहे वह मां के रूप में तथा सृष्टि के सृजन कर्ता के रूप में हो या बच्चों की पालनहार मां का ममत्व अथवा एक पत्नी के रूप में सृष्टि के प्रारंभ से ही स्त्री अपनी भूमिका बखूबी निभा रही है ।
आज की स्त्रियां शिक्षा के क्षेत्र में भी बढ़ोतरी कर रही है । लेकिन शिक्षित महिलाओं के साथ भी इस सभ्य पुरुष समाज में अपराधों की संख्या कम नहीं हो पा रही है । मैंने सभ्य पुरुष इसलिए कहा क्योंकि सारी सभ्यता का ठेका तो सिर्फ पुरुष वर्ग ने ही ले रखा है ना ,,,,!!!
हम आज भी देखते हैं कि लड़कियों के साथ जो भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है । यदि संतान लड़की के रूप में जन्मी हो तो परिवार पर दुख के बादल मंडराने लगते हैं । आज आधुनिक समाज में समय का तकाजा है कि दकियानूसी बातों को त्याग कर वर्तमान में जिए आज के इस समाज को निडर शिक्षित समझदार और पहल करने वाली स्त्री की आवश्यकता है ।
स्त्री को भी अपने अस्तित्व को स्थिर रखने के लिए त्याग को छोड़कर स्वयं का विकसित करना होगा क्योंकि स्त्री हमेशा से ही त्याग की मूर्ति रही है परिवार के लिए जो कुछ भी त्याग करती है परिवार उसे त्याग को कोई महत्व नहीं देता इतना ही नहीं अपने स्तर पर उसे आगे चलने पढ़ने के लिए भी छोड़ दिया जाता है ।
आज भी अगर बात कही जाए तो हमारे भारतीय स्त्रियों को अपने अधिकारों से संबंधित महिला दिवस जो 8 मार्च को मनाया जाता है के बारे में जानकारी ही नहीं है ।
इतना ही नहीं भारतीय समाज में हिंदू स्त्री अपनी स्वतंत्रता से ज्यादा अपने सुहाग को महत्व देती है । उनका पालन-पोषण ही इस ढंग से किया जाता है कि पति चाहे जैसा हो शादी के बाद पति ही उसका परमेश्वर है और इन्हीं संस्कारों के कारण वह स्वयं की इच्छा स्वतंत्रता और अधिकार सब कुछ अपने पति के हवाले कर देती है इतना ही नहीं पति की मृत्यु के पश्चात पति कि चिता पर जिंदा लेट कर अपनी जान देनी पड़ जाती है इसके लिए धर्म के ठेकेदार व द्वारा यह तर्क दिया जाता था के पति की मृत्यु के बाद पत्नी का क्या अस्तित्व है,,,,,???
पति की मृत्यु के बाद यदि पत्नी दूसरा विवाह कर लेती है तो -- वह धर्म के ठेकेदारों द्वारा "अनैतिक संबंध " किसी "पर" पुरुष के साथ हो जाएगा और यह धर्म के खिलाफ है । इसलिए स्त्री को पति की मृत्यु के बाद जिंदा रहने का कोई अधिकार नहीं है ।
विडंबना तो देखिए पत्नी की मृत्यु के पश्चात उसका पति कभी उसकी चिता पर लेट कर अपनी जान नहीं देता था ।
सोचिए जरा---- विवाह का अर्थ यदि पति कि लाते खाकर उन चरणों को पूछना है तो सवाल विवाह संस्था के प्रति उठ जाता है और स्वभाविक विरोध भी । फिर हिंदू महिला विधवा पुनर्विवाह का क्या अर्थ तब तो पुरुष की हर रोज मार खाने से रांड रहना ही अच्छा है ।
सरला : एक विधवा की आत्म जीवनी को प्रज्ञा पाठक ने कथादेश में प्रकाशित कराया----
जैसे गन्ने का रस निकाल लेने से छिलका रह जाता है वैसे ही हमारी हालत है ।
अब हमको खुद इस जेल खाने से निकलने की तदबीर करनी चाहिए। "
भले ही सती प्रथा हमारे देश में समाप्त हो गई हो किंतु हिंदू घरों में आज भी विधवाओं को तिल तिल जलाकर सती करते रहने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है ।
पुरुष समाज ने अपनी सुविधा के अनुसार पूरे समाज के ताने-बाने को बोल रखा है यदि एक पति अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात शादी जल्द ही कर सकता है और दूसरी के मौत के बाद तीसरी भी आसानी से कर सकता है परंतु यदि कोई शादीशुदा महिला विधवा हो जाती है तो वह दूसरी शादी करने के बारे में सोचने से भी डरती है ।
चाहे किसी भी रूप में हो स्त्री ही हमेशा पीड़िता रही है समाज के लिए सब कुछ करने के पश्चात भी हमेशा स्त्री को ही दोषी ठहराया जाता रहा है ।
दूसरी ओर इस बात से भी आहत हूं कि शाप ग्रसता ऋषि पत्नी अहिल्या के समान आज की स्त्री भी पुरुष के चरणों में ही मुक्ति खोजती है । मुक्त रहकर भी बंधे रहने की पीड़ा आज भी झेल रही है । आखिर क्यों बदल नहीं पाती उधार की मुक्ति को पुकार की उस भाषा को ।
आज भी स्त्री स्वयं की चेतना से सवाल पूछती है और अपना अपराध पूछती है तत्पश्चात एक सत्य उद्घाटित हो उठता है । पता नहीं पुरुष कौन सा रूप धर लेगा सर्वप्रथम प्रेमी से पति बनकर,,, सहायक से सृजन का और फिर,,, हृदय हीन होकर दंड विधायक बनकर पीड़ा प्रदान कर देगा ,,,!!
स्त्री प्रश्न आज भी कचरे में पड़ा है ,,,,!!!
और समाज आज भी मौन है ,,,,!!
प्रश्न यह है कि कब तक पुरुष प्रधान समाज स्त्री पक्ष को सुनना और समझना नहीं चाहेगा ......????
Very nice article mem
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