नोकरी छोड़ना : इच्छा या मजबूरी

नौकरी छोड़ना इच्छा या फिर मजबूरी



आज की स्त्री हर क्षेत्र में अपनी योग्यता का परचम लहरा चुकी है । भारतीय स्त्री अपने कार्य क्षेत्र तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों की चुनौतियों का कुशलता पूर्वक निर्वहन कर रही है । लेकिन फिर भी उसके आर्थिक विस्तार पर एक प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है ,,,,,!! समाज व परिवार को संवारने के लिए कटिबद्ध स्त्री को स्वयं के स्वाभिमान और सपनों के पंख करने पड़े हैं । परिवार के दायित्वों को संभालने के लिए तथा बच्चों की परवरिश के लिए आज की अधिकतर स्त्री नौकरी छोड़ रही है । यदि स्त्री घर पर रहकर बच्चों और परिवार को संभालना चाहती है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह कमजोर है बल्कि उसे चुनने का अधिकार मिलना चाहिए । बड़ी-बड़ी परीक्षाओं में सफल होने वाली आज की स्त्री जब भी अपना करियर बनाने के लिए आगे बढ़ती है तो सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियां उसे पीछे खींचने लगती है तथा कई बार भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करते हुए परिवार ही उसे घर पर बैठने को मजबूर कर दिया करता है । आज की स्त्री अपनी नई भूमिकाओं के साथ बखूबी तालमेल बिठाने को तत्पर है पर समाज और परिवार उसकी सोच में केवल अड़चन ही खड़ी करता रहता है ।  और यही कारण है कि आज की स्त्रियां नौकरी छोड़ने के लिए विवश है ।



ससुराल वालों की सेवा करने के लिए महिला का नौकरी छोड़ना बहुत ही आम बात है । वजह चाहे जो भी हो उसे समझौता करना ही होता है बच्चों की परवरिश करने के लिए मां का घर में होना जरूरी है । अगर नौकरी करती भी रहती है तब भी बच्चे से जुड़ी हर बात के लिए उसे ही छुट्टी लेनी होती है । जिसका असर उसके करियर पर पड़ता है हमारे यहां का सोशल सपोर्ट सिस्टम बहुत ही कमजोर है । जिसमें मां पत्नी बहू हर भूमिका में उसे परफेक्ट होना पड़ता है और यदि कोई चूक हो जाए तो नौकरी को ज्यादा अहमियत देने का ताना दे दिया जाता है । इतना ही नहीं सामाजिक रुप से रूढ़ीवादी इस देश में आज भी माना जाता है कि अच्छे परिवार की महिलाएं नौकरी नहीं करती ।



 इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज की स्त्री की भूमिका बदली है । लेकिन वास्तविकता में यदि देखा जाए तो उससे उम्मीद यही की जाती है कि वह चीजों को जैसे भी हो बस व्यवस्थित रखें इसके लिए चाहे उसे अपना करियर ही दांव पर क्यों न लगाना पड़े ।


डॉ टेसी थॉमस कहती है कि अगर कोई स्त्री लिंग भेद से परे अपनी सोच रखती हो , ओर यदि वह अपने हिस्से का 100% दे सकती है तो उसके लिए आसमान की कोई सीमा नहीं होती ।


लेकिन हमारा भारतीय समाज इतना अत्यधिक रूढ़िवादिता से ग्रस्त है कि यदि एक घर की दो बहू में से ,,, अगर बड़ी बहू के एक या दो लड़की जन्म ले ले और यदि छोटी बहू से पुत्र ही जन्म ले तो बड़ी बहू को वह परिवार  सम्मान नहीं दे पाता ।  फिर चाहे वह बड़ी बहू कितनी भी योग्य क्यों ना हो । इसके लिए कुछ हद तक कॉरपोरेट कल्चर और सामाजिक ढांचा भी जिम्मेदार है ।


मैं हमेशा ही से लड़के और लड़की के बीच भेदभाव पर सवाल उठाते आई हूं एक लड़की लड़के के बराबर ही महत्व रखती है और उसे बराबर अवसर भी मिलने चाहिए ।



 यदि स्त्री अपने सभी कर्तव्यों को कुशलता पूर्वक निर्वहन कर रही है। लेकिन वही चीजें यदि हमारे खुद के जीवन शैली को प्रभावित करने लगे ।  तब मुझे लगता है कि उनके खिलाफ लड़ना चाहिए लेकिन किसी बुरी बात के खुद के साथ घटने का इंतजार क्यों करना,,,,,???
 जो भी चीजें गलत है उनके खिलाफ पहले से ही आवाज उठानी चाहिए  । नहीं तो छोटे मुद्दे भी आगे चलकर बड़े बन जाते हैं
 ।


कुछ हद तक ऐसा हो रहा है पर ऐसा क्यों हो रहा है ,,,??? इस बात की तह तक जाना चाहिए ,,।।

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