स्त्री *
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नजर नहीं आती
क्यों ना चींखू कि याद करते हैं
मेरी आवाज गर नहीं आती
( मिर्ज़ा ग़ालिब)
इस संसार पर स्त्री का भी उतना ही हक है जितना की किसी पुरुष का । लोगों की ओछी मानसिकता बदलने की जरूरत है जो बदलाव हुए हैं वह नाकाफी है अभी बहुत कुछ बदलना बाकी है।
बरसों से ही स्त्री के महत्व को इस कदर नकारा गया है कि वर्तमान समय में भी उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए निरंतर प्रयास जारी है।
स्त्रियों को महत्व देने की दिशा में सबसे बड़ा कदम है कि उनके महत्व को दुनिया के सामने स्वीकार किया जाना । आज के समय में सोशल मीडिया इसके लिए बेहतरीन मंच हो सकता है । जब आप में कोई सकारात्मक बदलाव आते हैं और उसे सोशल मीडिया पर प्रदर्शित करते हैं तो दूसरे भी उनसे प्रेरणा लेते हैं । इसके बाद आती है जमीनी स्तर पर स्त्री को उसका हक देने की । सिर्फ बात करने से बात नहीं बनेगी । इसके लिए स्त्री को उनके सामाजिक आर्थिक अधिकार और चुनाव की पूर्ण स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए । स्त्री की अहमियत को बरसों से इस कदर नकारा जाता आया है कि उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने वाले आंदोलन भी अपने प्रयास निरंतर जारी रखे हुए हैं ।
सोचिए जरा --- बच्चे के आगे पिता का नाम ही क्यों ....??
पत्नी ही पति का उपनाम क्यों लगाए .....??
जमीन जायदाद मैं मालिक पुरुष ही क्यों भला....???
मैंने एक घर में बुज़ुर्गों को यह कहते सुना कि बहू के नाम पर मकान ना लीजो ...मतलब अपनी पत्नी के नाम पर मकान मत करना ...नहीं तो वह इस्तीफा (तलाक ) दे देगी ...!!
अरे भला यह भी कोई बात हुई ....???
इन सब बातों का एक ही जवाब है कि पुरुष को स्त्री से श्रेष्ठ और अधिक योग्य माना जाता है । यह खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि इसे पढ़ने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता है । स्त्री के सम्मान और आत्मविश्वास को रूढ़ियों ने हमेशा कम किया है । स्त्री की अहमियत को ऊपर उठाने के लिए कुछ और नए कदम उठाने की आवश्यकता है । महिला सशक्तिकरण की दिशा में वर्तमान में जो भी प्रयास हो रहे हैं वह कुछ लोगों को अति लगते हैं... या ढकोसला मात्र ...लगते हैं । मगर यह समझने की जरूरत है कि बरसों से उन्हें दोयम दर्जे पर रखा गया अब वह समानता का दर्जा पाना चाहती है तो पुरुष समाज के पेट में क्यों दर्द होने लगता है ।
जो पुरुष अपनी पत्नियों बेटियों और दूसरी स्त्रियों को खुद से आगे रखने का साहस दिखा रहे हैं । वह निश्चित ही प्रशंसनीय है उन्हें स्त्री की संवेदनशीलता की ताकत पर अटूट विश्वास है । स्त्री का प्रेम महत्व और योग्यता पुरुषों की प्रगति में कहीं आड़े नहीं आता । लेकिन इसके लिए पुरुष समाज को समझदारी और प्रगतिशील मानसिकता अपनानी पड़ेगी । निश्चय ही तभी हमारा समाज व देश सकारात्मकता की दिशा में अग्रसर हो पाएगा ।
कोई सूरत नजर नहीं आती
क्यों ना चींखू कि याद करते हैं
मेरी आवाज गर नहीं आती
( मिर्ज़ा ग़ालिब)
इस संसार पर स्त्री का भी उतना ही हक है जितना की किसी पुरुष का । लोगों की ओछी मानसिकता बदलने की जरूरत है जो बदलाव हुए हैं वह नाकाफी है अभी बहुत कुछ बदलना बाकी है।
बरसों से ही स्त्री के महत्व को इस कदर नकारा गया है कि वर्तमान समय में भी उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए निरंतर प्रयास जारी है।
स्त्रियों को महत्व देने की दिशा में सबसे बड़ा कदम है कि उनके महत्व को दुनिया के सामने स्वीकार किया जाना । आज के समय में सोशल मीडिया इसके लिए बेहतरीन मंच हो सकता है । जब आप में कोई सकारात्मक बदलाव आते हैं और उसे सोशल मीडिया पर प्रदर्शित करते हैं तो दूसरे भी उनसे प्रेरणा लेते हैं । इसके बाद आती है जमीनी स्तर पर स्त्री को उसका हक देने की । सिर्फ बात करने से बात नहीं बनेगी । इसके लिए स्त्री को उनके सामाजिक आर्थिक अधिकार और चुनाव की पूर्ण स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए । स्त्री की अहमियत को बरसों से इस कदर नकारा जाता आया है कि उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने वाले आंदोलन भी अपने प्रयास निरंतर जारी रखे हुए हैं ।
सोचिए जरा --- बच्चे के आगे पिता का नाम ही क्यों ....??
पत्नी ही पति का उपनाम क्यों लगाए .....??
जमीन जायदाद मैं मालिक पुरुष ही क्यों भला....???
मैंने एक घर में बुज़ुर्गों को यह कहते सुना कि बहू के नाम पर मकान ना लीजो ...मतलब अपनी पत्नी के नाम पर मकान मत करना ...नहीं तो वह इस्तीफा (तलाक ) दे देगी ...!!
अरे भला यह भी कोई बात हुई ....???
इन सब बातों का एक ही जवाब है कि पुरुष को स्त्री से श्रेष्ठ और अधिक योग्य माना जाता है । यह खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि इसे पढ़ने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता है । स्त्री के सम्मान और आत्मविश्वास को रूढ़ियों ने हमेशा कम किया है । स्त्री की अहमियत को ऊपर उठाने के लिए कुछ और नए कदम उठाने की आवश्यकता है । महिला सशक्तिकरण की दिशा में वर्तमान में जो भी प्रयास हो रहे हैं वह कुछ लोगों को अति लगते हैं... या ढकोसला मात्र ...लगते हैं । मगर यह समझने की जरूरत है कि बरसों से उन्हें दोयम दर्जे पर रखा गया अब वह समानता का दर्जा पाना चाहती है तो पुरुष समाज के पेट में क्यों दर्द होने लगता है ।
जो पुरुष अपनी पत्नियों बेटियों और दूसरी स्त्रियों को खुद से आगे रखने का साहस दिखा रहे हैं । वह निश्चित ही प्रशंसनीय है उन्हें स्त्री की संवेदनशीलता की ताकत पर अटूट विश्वास है । स्त्री का प्रेम महत्व और योग्यता पुरुषों की प्रगति में कहीं आड़े नहीं आता । लेकिन इसके लिए पुरुष समाज को समझदारी और प्रगतिशील मानसिकता अपनानी पड़ेगी । निश्चय ही तभी हमारा समाज व देश सकारात्मकता की दिशा में अग्रसर हो पाएगा ।
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