आधुनिक स्त्री

पुरुष ने स्त्री को एक ऐसे ढांचे में डाल रखा है,,, जो सिर्फ उसके स्वभाव अनुसार कार्य कर सकें। वह मात्र कठपुतली बनकर परंपराओं मिथ्या धारणाओं और मान्यताओं का निर्वहन करती रहे। उसे यही सिखाया जाता है कि जो उसे मिलता है या मिलेगा उसी में संतोष कर लेना होगा ।



स्त्री ने प्रत्येक रूप में अपने कर्तव्यों को बड़ी ही खूबसूरती के साथ निभाया है और जीवन पर्यंत परिवार की सेवा में जुटी रहती है। यहां तक की वह यह भी भूल जाती है की उसकी भी कोई इच्छा है अथवा उसका भी अपना कोई वजूद है ।


 यह आवश्यक नहीं कि कम शिक्षित होने के कारण स्त्री को कष्ट सहना पड़ रहा हो बल्कि यदि स्त्री ज्यादा पढ़ी-लिखी हो तो उसे भी अनेक कष्टों को सहन करने के सिवा कोई चारा नहीं बचता और यदि स्त्री किसी असहनीय कष्ट का विरोध भी कर दे तो मायके की मान मर्यादा को क्षति पहुंचाई जाती है ।


कहीं-कहीं तो समाज में स्त्री को एक सैंडविच या कुशन के समान समझा जाता है जो समय पर पति बच्चों या परिवार के काम आ सके । 


 अधिकांशत है विवाह के पश्चात स्त्री का निजी अस्तित्व तो लगभग समाप्त ही हो जाता है वह सिर्फ पत्नी होने मां होने तक ही सिमट कर रह जाती है हालांकि शादी के बाद पति पत्नी का हर सुख-दुख एक हो जाता है वह दो न रहकर एक ही कहलाते हैं इसका मतलब यह तो नहीं कि सिर्फ एक जोड़े के रूप में ही स्त्री को पहचाना जाए मैं यह पूछना चाहती हूं कि यदि आप किसी के साथ अच्छी तरह से कैसे रह सकते हैं कि अगर आपकी पहचान उससे भयानक तरह से जुड़ी हुई है लिस्ट जीवन को बेहद सुंदर बनाने के लिए बनाए जाते हैं यदि रिश्ता क्यों बनाया आप यह भूल जाते हैं तो रिश्ते की पहचान रिश्ते के मकसद से बड़ी हो जाती है यह समझना आवश्यक है कि आपका विवाह आपका कैरियर आपकी दौलत एक व्यवस्था है और व्यवस्था हमारे जीवन को बेहतर और सुविधाजनक बनाने के लिए होती है उसे सीमित और नष्ट करने के लिए नहीं ।




 विवाह करना आसान है व्यक्ति विवाह अपने जीवन को आनंदमय व सुचारू रूप से चलाने के लिए करता है और यदि विवाह रूपी गाड़ी पटरी पर अपनी लय में सही दिशा में चले तो वह आखिरी पड़ाव तक जरूर पहुंचती है और यदि यह गाड़ी इस पटरी पर से उतर गई तो वह अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचती और फिर होता है विवाह विच्छेद या तलाक  ।  ऐसे बहुत से उदाहरण आज के आधुनिक समाज में देखने को मिलते हैं जो एक शादी करके भी संतुष्ट नहीं होते या यूं कह लें कि विवाहेत्तर संबंध बनाने से भी बाज नहीं आते । यह भी कारण है कि स्त्री के प्रति हो रहे अपराधों में बढ़ोतरी हो रही है ।

वर्तमान समय में अपवाद स्वरूप कहीं-कहीं स्त्री भी विलासिता के अंधे कुएं में गिरती जा रही है । इन गैर जिम्मेदार हरकतों की वजह से समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट की आती है । आज की परिस्थितियां ऐसी है कि स्त्रियां खुद को पुरुषों की तरह तैयार करके सभी चीजों को करने की कोशिश कर रही है और यह स्त्री का तरीका नहीं है । आज की स्त्री का तरीका की ' बस कर डालो ' वाला नहीं होना चाहिए उसे अपने तरीके से करना चाहिए यह स्त्री प्रकृति भी है । क्योंकि इसका संबंध मात्र कामयाबी पाना नहीं बल्कि जीवन को सुंदर बनाना ही है ।
पुरुष का स्वभाव किसी भी तरह अपनी मंजिल पर पहुंचना होता है लेकिन स्त्री एक खास तरीके से ही अपनी मंजिल को पाना चाहती है।
 पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित आज की स्त्री की मानसिकता ऐसी हो गई है कि उसे भारतीय लहराने , लटकाने वाले कपड़े भी फालतू लगते हैं । कुछ समय के लिए यह जरूर उपयोगितावाद लगता है लेकिन कुछ समय के पश्चात सब कुछ बदसूरत दिखाई देने लगता है । रोज़ी रोटी का इंतजाम हो गया और फिर दूसरे आयामों को पाने की लालसा रखने लगते हैं । इस नजरिए को बदलना आवश्यक है । लेकिन इसे हम नहीं पलट सकते क्योंकि वर्तमान युग एक बाजारवाद और अर्थव्यवस्था का युग है ।

 लीक से हटे हुए कुछ ऐसे रिश्ते समाज व संस्कृति को धता बताते हुए जरूर जुड़ जाते हैं । लेकिन कुछ समय के पश्चात उनका सर्वस्व नष्ट हो चुका होता है ।
प्रेम की घनिष्ठता के उन दिनों में जब वे एक दूसरे को प्राणों से ज्यादा प्रेम न्योछावर करते थे गिला शिकवा के बिना घंटों बैठकर एक दूसरे का इंतजार करते थे ।  वहीं थोड़े समय के पश्चात ऊबन दर्द खीझ का आलम छा जाता है इसमे कोई आश्चर्य नहीं ।

 सामाजिक स्तर पर एक मित्र की आवश्यकता स्वभाविक है यदि कोई स्त्री पुरुष बैठकर बातों का आदान प्रदान करें तो वह समझौता मित्रता कहलाती है । लेकिन यदि वह शारीरिक इच्छापूर्ति के लिए हो तो वह व्यापार या असंयत वासना ही कहलाएगा । इस तरह की जरूरतों से जो रिश्ता पैदा होता है वह निश्चय ही छल कपट है ।

यह तो एक ही रूप है इससे आगे भी बहुत सी बुराइयां समाई है । इस शरीफों के समाज में ,, ।।
यह नई किस्म की गंदगी पश्चिम सभ्यता की देन है । यह वहां के नग्नता का परिचायक है । आज की स्त्री ज्यादा आधुनिक है ओर उन्मुक्त हो चुकी है । इसलिए यह स्त्रियां भी पश्चिम सभ्यता की नकल कर रही है । यहां तक की स्वयं की वासना पूर्ति के लिए भी सामाजिक रिश्ते को भी तार-तार करने से बाज नहीं आती । यह विकास की आधुनिकता हमारे सभ्य समाज को विशिप्त कर रही है । जहां उम्र दराज स्त्रियां या अपने पति से संतुष्ट न रहने वाली कुछ स्त्रियां अपनी मर्यादा तक को दाव पर लगा देती है ।

आप मेरे इस लेख से जरा भी यह मत समझना कि मैं स्त्री समाज की आलोचक हूं पर हां स्त्री समाज के प्रति प्रश्न जरूर उठता है  । दिव्या उपन्यास में लिखा हुआ एक वाक्य है कि--- समाज में रहने वाली स्त्री से ज्यादा वेश्या अपनी जिंदगी को आजाद होकर जीती है  ।  ,,,,,तो क्या आधुनिक स्त्री भी इसी लय और ताल पर अपने जीवन का आधार बना कर जीना चाहती है ,,,,??? इस उपन्यास को पढ़ने के बाद स्त्री के दो चेहरे उभर कर आते हैं ,,, एक तो वह स्त्री जो तमाम उम्र पुरुष शब्द का सहारा खोजती फिरे,,, और दूसरी वह स्त्री जो समाज में वेश्या बनकर रहने में संतुष्टि प्राप्त करती है  ।
इस उपन्यास में स्त्री को तमाम बंधन तोड़कर जिंदगी को जीना सिखाया गया है । लेकिन यह बिल्कुल नहीं है कि सभी स्त्रियों को वेश्या बन जाना चाहिए बल्कि यह कहा गया है कि स्त्री भी जिंदगी के बंधनों से मुक्त होनी चाहिए और वह स्वयं सक्षम है कि तमाम बंधनों से मुक्त होकर स्वयं की रक्षा कर सकती है ना कि किसी पुरुष के सहारे ।

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