शिक्षा और राजनीति
पिछले कुछ वर्षों से हमारे देश के सामने जो भी बहुत पेचीदा समस्याएं आई है । उनमें हमारे विश्वविद्यालय भी रहे हैं हड़ताल , झगड़े , गोली , लाठियां , गाली गलोज , तिहार बाजी मुकदमें जांच कमीशन और और न जाने क्या क्या ,,,,???
एक जमाना था जब विश्वविद्यालय देश के सांस्कृतिक जीवन के पवित्रतम तीर्थ माने जाते थे और आज मधुमक्खियों के छत्ते मधु कम होता जा रहा है । संगठन और समस्याएं बढ़ती जा रही है ,,,, कारण ढूंढिए तो ले देकर एक ही बात ---- की कुछ अध्यापक शोध अध्ययन पठन-पाठन की अपेक्षा विश्वविद्यालय की राजनीति और अपने स्वार्थ साधन में ज्यादा रुचि लेते हैं । हमारे देश की समस्याओं में विश्वविद्यालयों में भी राजनीतिक दांवपेच हड़ताल गोली आदी हो रहे हैं । इन विश्वविद्यालयों में विभिन्न प्रकार की समस्याओं को बढ़ाने में अपना योगदान दिया है । अध्यापक भी राजनीति और अपने स्वार्थ साधन में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं । आशय है कि कार्य करने वाले व्यक्तियों तथा कर्मचारियों की संख्या तो निरंतर बढ़ रही है परंतु उनकी कार्य क्षमता उस अनुपात में नहीं बढ़ रही । वह संगठन बना लेते हैं ,,,, मांग पूरी ना होने पर हड़ताल भी कर बैठते हैं ,,,, और कभी-कभी तो आक्रमण भी ,,,, इनके मूल में सिर्फ एक ही बात है ।
राजनीति और भ्रष्टाचार राजनीति के खेल अगर दोहरे ना हो तो फिर राजनीति क्या एक तो सत्ता के लिए दोनों वर्गों के राजनीतिज्ञों ने अध्यापकों के इस विकृत वर्ग को उभार कर महत्व दिया है और जब उसे महत्व मिल गया तब उसी वर्ग की जांच कर उनकी तमाम क्रियाओं को प्रचारित कर विश्वविद्यालयों की पांचसौ वर्ष पुरानी प्रतिष्ठा को जड़ से उखाड़ने का प्रयास शुरू कर दिया । हृदय से त्याग में शुभा उसे गंभीर ज्ञान संग्रह ही अध्यापकों की कमी नहीं थी । उनके लिए विश्वविद्यालय मात्र आजीविका का ही नहीं वरन आत्म दान और राष्ट्र की भावी पीढ़ी के निर्माण का तीर्थ था । उसी तीर्थ की संपूर्ण प्रवृत्त पवित्रता और प्रतिष्ठा को कीचड़ में भरपूर सनते हुए देखते रहे है । राजनीति के नक्कारखाने में उनकी सुनता भी कौन दोहरी राजनीति ने विकृत अध्यापक वर्ग को महत्व दिया । फिर उन्हीं के कारनामों की जांच कर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को गिराया विश्वविद्यालय को आत्म दान और राष्ट्र निर्माण का तीर्थ मानने वाले गंभीर और ज्ञान संग्रह अध्यापक विवश हो सब देखते रहे । राजनीति ने अध्यापक वर्ग को अपने मूल कार्य अध्यापन से विमुख होकर अहमवादी तो बनाया ही है । साथ ही भ्रष्ट भी कर दिया अब अध्यापक शिक्षा से अधिक राजनीति में रूचि लेने लगे हैं । राजनीति ने विश्वविद्यालयों में अराजकता तथा हिंसा आदि को ही आमंत्रित किया है । वह अच्छे संकाय व्यक्ति विभाग तथा व्यवस्था को बनाने में असफल रही है । विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को जड़ से उखाड़ने का प्रयास मानव निहित स्वार्थ तथा राजनीति कर रहे हैं । मेरा आशय यह है कि वर्तमान समय में पूर्व के अध्यापक निष्ठा भाव से अपना अध्यापन कार्य संपन्न किया करते थे वह हृदय से त्याग में तथा स्वभाव से भी गंभीर थे । विश्वविद्यालय उनकी आजीविका का ही नहीं वरन आत्म दान और राष्ट्र की भावी पीढ़ी के निर्माण का तीर्थ था इतना ही नहीं उन्हें राजनीति तथा पद प्रतिष्ठा आदि तत्वों से कोई सरोकार नहीं था । ज्ञान और साधना की अग्नि में तप कर ही भारत रुपए स्वर्ण सहित अधिक उजला और पावन हुआ है ।
विभिन्न ज्ञान के क्षेत्र और लंबी साधनों के अनुभव भारतवर्ष के साहित्य में समाहित हैं ,,,, ना चेतना की कमी है ,,, ना कौशल की ,,, पर जिंदगी केवल सुलग रही है । जीने की इच्छा कीड़े की तरह बस कुल बुला रही है।
हम बेखबर हो ऐसा भी नहीं है हम देख रहे हैं हम जान रहे हैं कि की एक सड़ांध बाहर और भीतर फैल रही है हम भी हैं जानते हैं कि यह उपाय किए जाए तो वह सड़ांध दूर हो सकती है पर हम लाचार हैं उन उपायों का जोखिम हम उठाने में असमर्थ हैं और चारों ओर फेलती सड़ांध उसके निवारण के उपायो को जानते हुए भी हम व्यक्ति इकाई के रूप में समाज सुधारक के कार्य कर सकते हैं ,,,और उसे व्यर्थ की सांस्कृतिक विपन्नता से भी बचा सकते हैं ।
एक जमाना था जब विश्वविद्यालय देश के सांस्कृतिक जीवन के पवित्रतम तीर्थ माने जाते थे और आज मधुमक्खियों के छत्ते मधु कम होता जा रहा है । संगठन और समस्याएं बढ़ती जा रही है ,,,, कारण ढूंढिए तो ले देकर एक ही बात ---- की कुछ अध्यापक शोध अध्ययन पठन-पाठन की अपेक्षा विश्वविद्यालय की राजनीति और अपने स्वार्थ साधन में ज्यादा रुचि लेते हैं । हमारे देश की समस्याओं में विश्वविद्यालयों में भी राजनीतिक दांवपेच हड़ताल गोली आदी हो रहे हैं । इन विश्वविद्यालयों में विभिन्न प्रकार की समस्याओं को बढ़ाने में अपना योगदान दिया है । अध्यापक भी राजनीति और अपने स्वार्थ साधन में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं । आशय है कि कार्य करने वाले व्यक्तियों तथा कर्मचारियों की संख्या तो निरंतर बढ़ रही है परंतु उनकी कार्य क्षमता उस अनुपात में नहीं बढ़ रही । वह संगठन बना लेते हैं ,,,, मांग पूरी ना होने पर हड़ताल भी कर बैठते हैं ,,,, और कभी-कभी तो आक्रमण भी ,,,, इनके मूल में सिर्फ एक ही बात है ।
राजनीति और भ्रष्टाचार राजनीति के खेल अगर दोहरे ना हो तो फिर राजनीति क्या एक तो सत्ता के लिए दोनों वर्गों के राजनीतिज्ञों ने अध्यापकों के इस विकृत वर्ग को उभार कर महत्व दिया है और जब उसे महत्व मिल गया तब उसी वर्ग की जांच कर उनकी तमाम क्रियाओं को प्रचारित कर विश्वविद्यालयों की पांचसौ वर्ष पुरानी प्रतिष्ठा को जड़ से उखाड़ने का प्रयास शुरू कर दिया । हृदय से त्याग में शुभा उसे गंभीर ज्ञान संग्रह ही अध्यापकों की कमी नहीं थी । उनके लिए विश्वविद्यालय मात्र आजीविका का ही नहीं वरन आत्म दान और राष्ट्र की भावी पीढ़ी के निर्माण का तीर्थ था । उसी तीर्थ की संपूर्ण प्रवृत्त पवित्रता और प्रतिष्ठा को कीचड़ में भरपूर सनते हुए देखते रहे है । राजनीति के नक्कारखाने में उनकी सुनता भी कौन दोहरी राजनीति ने विकृत अध्यापक वर्ग को महत्व दिया । फिर उन्हीं के कारनामों की जांच कर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को गिराया विश्वविद्यालय को आत्म दान और राष्ट्र निर्माण का तीर्थ मानने वाले गंभीर और ज्ञान संग्रह अध्यापक विवश हो सब देखते रहे । राजनीति ने अध्यापक वर्ग को अपने मूल कार्य अध्यापन से विमुख होकर अहमवादी तो बनाया ही है । साथ ही भ्रष्ट भी कर दिया अब अध्यापक शिक्षा से अधिक राजनीति में रूचि लेने लगे हैं । राजनीति ने विश्वविद्यालयों में अराजकता तथा हिंसा आदि को ही आमंत्रित किया है । वह अच्छे संकाय व्यक्ति विभाग तथा व्यवस्था को बनाने में असफल रही है । विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को जड़ से उखाड़ने का प्रयास मानव निहित स्वार्थ तथा राजनीति कर रहे हैं । मेरा आशय यह है कि वर्तमान समय में पूर्व के अध्यापक निष्ठा भाव से अपना अध्यापन कार्य संपन्न किया करते थे वह हृदय से त्याग में तथा स्वभाव से भी गंभीर थे । विश्वविद्यालय उनकी आजीविका का ही नहीं वरन आत्म दान और राष्ट्र की भावी पीढ़ी के निर्माण का तीर्थ था इतना ही नहीं उन्हें राजनीति तथा पद प्रतिष्ठा आदि तत्वों से कोई सरोकार नहीं था । ज्ञान और साधना की अग्नि में तप कर ही भारत रुपए स्वर्ण सहित अधिक उजला और पावन हुआ है ।
विभिन्न ज्ञान के क्षेत्र और लंबी साधनों के अनुभव भारतवर्ष के साहित्य में समाहित हैं ,,,, ना चेतना की कमी है ,,, ना कौशल की ,,, पर जिंदगी केवल सुलग रही है । जीने की इच्छा कीड़े की तरह बस कुल बुला रही है।
हम बेखबर हो ऐसा भी नहीं है हम देख रहे हैं हम जान रहे हैं कि की एक सड़ांध बाहर और भीतर फैल रही है हम भी हैं जानते हैं कि यह उपाय किए जाए तो वह सड़ांध दूर हो सकती है पर हम लाचार हैं उन उपायों का जोखिम हम उठाने में असमर्थ हैं और चारों ओर फेलती सड़ांध उसके निवारण के उपायो को जानते हुए भी हम व्यक्ति इकाई के रूप में समाज सुधारक के कार्य कर सकते हैं ,,,और उसे व्यर्थ की सांस्कृतिक विपन्नता से भी बचा सकते हैं ।
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