भ्रांति ,,,,

सांस्कृतिक विपन्नता का पहला कारण तो झूठी धार्मिक जिंदगी है और दूसरा कारण है भाषा की प्राचीर जो इन ऊंचे वर्ग और साधारण आदमी के बीच खड़ी कर दी गई है ।



  इनका मूल्य बोध एक धुली हुई स्लेट है जिस पर जो अंक चाहे आप चढ़ा दीजिए या फिर उसे मिटा दीजिए । सबसे अधिक सोचनीय बात यह है कि इनमें किसी भी संस्कृति के प्रति निष्ठा तो दूर  औपचारिक आदर का भाव तक नहीं है ,, और ना किसी प्राचीन या अर्थहीन मूल्य को निरस्त करने का ही मनोबल है  ।


 कहने के लिए ऐसे लोगों में धार्मिकता का तो बाना मिलेगा गाए - बगाहे पूजा पाठ भी होता मिलेगा,,,, पर धर्म इनके घरों में आकर इतना संदर्भ हीन हो जाता है कि मन करता है कि कहें कि आप नास्तिक अनुष्ठान विरोधी होते तो अधिक अच्छा होता कम-से-कम तब आपके ईमानदार होने की संभावना अधिक थी । इस पूरे वर्ग में योग ,  तंत्र , अंतश्चेतना और अति मानस से संबद्ध वांग्मय की सुंदर जिल्दें दिखेंगी । ,,,,,भीतर शायद पन्ने अगर छापते समय कटने से रह गए हो तो वैसे ही बरकरार भी हो । परंतु बौद्धिक मुखोटे के नीचे चेहरे पर हर देवता का भूत प्रेत का अघोरी ,  औघड़ , का डाकिनी ,  शाकिनी का भय मुर्दनी बनकर छाया हुआ है ।



मेरे कहने का तात्पर्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष करना है जो कि ऊपर से स्वयं को आस्तिक , अनुष्ठान वादी इमानदार , अर्थवान संस्कृति निष्ठ अनौपचारिक आदि बताते हैं ।  लेकिन उनके बौद्धिक मुखोटे के नीचे भूत ,  प्रेत , अघोरी ,  औघड़ डाकिनी , शाकिनी आदि का भय मुर्दनि बनकर तो छाया ही है । अपितु वह अनुष्ठान विरोधी औपचारिकता तथा धार्मिकता के झूठे बाने से भी बुने हुए हैं ।  मेरा  तात्पर्य उनका वास्तविक रूप में प्रकट करना  हैं जो मानव अपनी स्वाभाविक वृत्ति के कारण अनैतिक गुणों से भरपूर हो सकता है ।



किंतु वहीं दूसरी और मानव की यह भी संभावित वृद्धि है कि वह एक विवेकशील सामाजिक मर्यादित एवं सांस्कृतिक मूल्यों का रक्षक भी है अतः उसे अपने अनैतिक गुणों को सदाचरण एवं सद्व्यवहार से समूल उखाड़ फेंकना चाहिए । धार्मिकता का लबादा ओढ़े हुए उन व्यक्तियों को धार्मिक नहीं कहा जा सकता जिन्हें अपने देश व समाज की विघटित होती हुई संस्कृति को संभालने का भान तक नहीं है । वह झूठी धार्मिकता में तो जीते हैं तथा पूजा-पाठ मंत्रोच्चारण व्यर्थ के कर्मकांड कर अब स्वयं को उच्च धार्मिकता से संपन्न समझते हैं। 



वही भाषा जो कि मूल रूप से समान होते हुए भी मात्र इसलिए परिवर्तित हो जाती है । क्योंकि एक भाषा इसलिए निम्न है क्योंकि वह एक साधारण मनुष्य का प्रतिनिधित्व करती है । जबकि एक अन्य भाषा इसलिए अलग हो जाती है कि वह उच्च तथा प्रतिष्ठित वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है यह प्राचीन सांस्कृतिक विपन्नता को जन्म देती है ।

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