: स्त्री :








           
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किसी भी समाज के सुसंस्कृत और विकसित होने की कसौटी स्त्री हो सकती है । इस तरह साहित्य में भी समाज की उन्नति अवनति का प्रतीक बन जाती है ।  वैदिक काल में स्त्री को एक सशक्त व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाता था । इतना ही नहीं धार्मिक अनुष्ठान से लेकर राजनीतिक कार्यों में भी स्त्री की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी ।  परंतु कुछ समय के पश्चात स्त्री को शारीरिक दुर्बलता के कारण समाज में उसका स्थान गौण होने लगा । पुरुष ने भी उसकी इस गिरती हुई दशा को सुधारने का प्रयत्न नहीं किया ।  पुरुष ने मात्र देवी बनाकर कर तथा पवित्रता का स्वांग भरकर कर या कहीं मनोविनोद की वस्तु बनाकर स्त्री जाति को जड़ बना दिया ।



प्रत्येक युग की आवश्यकता के अनुरूप तथा समाज को अनुशासित करने की दृष्टि से कुछ नियम या उप नियम बनाए जाते रहे हैं ।  जो कालांतर में परंपरा या रूढ़ि के रूप में विकसित हो जाते हैं नए युग नए मूल्यों की स्थापना के साथ ही रूडी परंपरा का विरोध भी होने लग जाता है । सामाजिक  विकृतियां  भी कभी कभी व्यक्ति में अलगाववादी विचारधारा को जन्म देने में सहायक बन जाती है ।  आज भी प्राचीन एवं नवीन मान्यताओं के बीच संघर्ष जारी है और स्त्री स्वतंत्र की नवीन चेतना से ओतप्रोत स्वयं के अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए संघर्षरत भी है ।


 आज की पढ़ी-लिखी कल्चरड और पहले से कहीं ज्यादा आजाद स्त्री नैतिक मान्यताओं और सामाजिक मर्यादाओं को खुली चुनौती देने लगी है । वर्तमान समय में नैतिक मान्यताओं में परिवर्तन पाश्चात्य संपर्क से अधिक आया है । इतना ही नहीं पाश्चात्य नैतिक मूल्यों को फैशन के रूप में भी अपनाया जा रहा है । इसके चलते इस परिवर्तन में कहीं-कहीं तो मूल्य हीनता भी आ जाती है । लेकिन फिर भी कहीं परंपरागत नैतिकता को स्वीकार करते हुए उसके स्वरूप को और भी अधिक निखार आ गया है ।



 स्त्री वर्ग का दायरा सीमित होने के कारण तथा स्वभाव से ही डरपोक प्रवृत्ति के कारण उनमें धार्मिक अंधविश्वास अधिक थे ।  किंतु दिन प्रतिदिन की सामाजिक उन्नति के कारण यह अंधविश्वास आज विलुप्त होते दिखाई दे रहे हैं । परंतु अभी भी पूर्ण रूप से हमारे समाज से समाप्त नहीं हुए हैं । आज की परिवर्तित परिस्थितियों में समाज के मूल्य और आदर्श के प्रति मोह तो समाप्त हो रहा है  । मूल्यों की उपयोगिता तर्क पर आधारित होने लगी है । परंपरागत नैतिक मूल्यों के प्रति नकारात्मकता का दृष्टिकोण का प्रभाव भी बढ़ गया है । संबंधों में रूढ़िवादिता का विरोध होने लगा है ।


आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण भी स्त्री स्वयं का स्वतंत्र व्यक्तित्व की पहचान बना रही है  । विवाह संबंधों में भी स्त्री स्वयं निर्णय लेने लगी है । वर्तमान में विज्ञान ने मानव के जीवन मूल्यों को भी बदल दिया है ।


समाज की दुरावस्था और झूठी नैतिक मर्यादाओं तथा धार्मिक मान्यताओं के प्रति अपने आक्रोश और असंतोष की भावना और समाज के आदर्शों को परखने की कसौटी में भी स्त्री आज भी संघर्षरत है  । अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के लिए स्त्री ने रूढ़ मान्यताओं से स्वयं संघर्ष किया । स्त्री के स्वयं का  भी अस्तित्व है,,,  उसका भी एक हृदय है,,,, उसके पास भी बुद्धि है ,,,,जो कि पुरुष की भांति निर्णय लेने में सक्षम है । प्राचीन समय से ही पुरुष ने स्त्री को इतना अधिक पराधीन बनाकर रखा कि वह पुरुष की सहायता के बिना घर से बाहर भी नहीं निकल सकती  । पुरुष समाज ने ही उसको देवी ,  देवी कह कर किसी कार्य करने के योग्य नहीं बनने दिया है ।

स्त्री शिक्षा के परिणाम स्वरूप आधुनिक चेतना संपन्न स्त्री नैतिक मूल्यों , जड़ परंपराओं ,  रूडी गत संस्कारों एवं जर्जर मान्यताओं का भी विरोध करने लगी है । जो उसके व्यक्तित्व के विकास में बाधक है ।  आज की स्त्री व्यक्ति बनकर जीना चाहती है पुरुष की संपत्ति बन कर नहीं । शिक्षा ने ही नहीं बल्कि आधुनिक सामाजिक सुधार आंदोलनों ने भी स्त्री वर्ग में एक नवीन चेतना का संचार किया है ।

किसी भी समाज के आदर्श विश्वास नियम व्यवहार व मान्यताएं समय अनुसार बदलती रहती है । जो नियम या मान्यताएं नहीं बदलती वह रूडी और परंपरा के क्षेत्र में आ जाती है।  यह सत्य है कि स्त्री आज निर्जीव वस्तु न रहकर जीवन एक अविश्लेषय बन चुकी है । फिर भी वह कदम  कदम पर छली जाती है और घुमा फिरा कर उसे आज भी वासना की भोग्य सामग्री मात्र समझा जाता है । स्त्री की आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति से उसका पारिवारिक संघर्ष और बढ़ गया है ।  परिवार और समाज को संतुलन बनाए रखने के लिए उसे चतुर्दिक दबाव सहन करना पड़ता है।  फलस्वरूप संबंधों में विद्रोह और संघर्ष का प्राधान्य हो जाता है।  कही कही तो सहनशीलता ,  सेवा परायणता आदि भावनाएं भी लुप्त होती दिखाई देती है । इसके चलते पति-पत्नी के संबंधों में भी आदर्शवाद पर प्रश्न चिन्ह लग गया है । नैतिक मूल्य तो विगत वर्षों में अधिक तीव्रता से घटित हो ही रहे हैं ।

जहां एक और स्त्री की नवीन चेतना तथा बौद्धिक उन्मेष ने प्राचीन मूल्यों पर प्रश्न चिन्ह लगाए हैं । वही इस व्यक्ति स्वतंत्र की चेतना से स्त्री-पुरुष संबंधों में भी तनाव आ गया है । अपने व्यक्तिगत विकास के लिए सजग आज की स्त्री पति से भी एक नए प्रकार का विश्वास और आचरण की मांग करती है  ।  सामाजिक दृष्टि से स्त्री उचित सम्मान के अभाव में मानसिक दबाव के अंतर्गत रहती है । जीवन के अभाव होने के मध्य पुरुष के स्वभाव में भी चिड़चिड़ापन भर जाता है तो दूसरी ओर यह  दबाव स्त्री  को सहन करना पड़ रहा है ।  भले ही उसका स्वरूप पत्नी का हो  , बहन का हो , अथवा मां का रहता हो ।


मानसिक एवं पारिवारिक दबावों के कारण शिक्षित और आत्मनिर्भर होकर भी आज की स्त्री पति की दासता से मुक्त नहीं हो पाती है । उस की प्रमुख समस्या है कि वह गृहणी बने या नौकरी करें ।

 फिर भी आज चाहे स्त्री आर्थिक सामाजिक रूप से स्वतंत्र है । अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष भी करती है । स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्थापना के लिए विरोध भी सकती है । किंतु फिर भी यह सत्य है कि वह पुरुष का ही सहारा ढूंढती है यह बात अलग है कि पुरुष भी परंपरागत व्यवहार से भिन्न उसके व्यक्तित्व को स्वीकार करता हुआ उसके विकास में सहयोग देने लगा है । परिणाम स्वरूप इन सामाजिक विषमताओं के कारण स्त्री का तो ना तो अच्छी जिंदगी जी पा रही है  । इसलिए वह एक कवच ढूंढती है चाहे पति के रूप में हो भाई के रूप में हो या बाप के रूप में या फिर किसी झूठे रिश्ते का ।


स्त्री को सतीत्व और देवत्व के कठघरे से निकाल कर उसे एक संपूर्ण मानवी इकाई के रूप में देखने और समझने का इस सभ्य पुरुष समाज को प्रयत्न करना होगा । वह मात्र खिलौना नहीं,,, केवल रमणी भी नहीं,,, और ना ही मात्र संगिनी है ,,,,वह तो एक मानवीय रूप है  ,,,, जिसके पास हृदय है और बुद्धि भी है । जो निर्णय लेने में सक्षम है ।वर्तमान परिस्थितियों में स्त्री को केवल मां प्रेयसी अथवा पत्नी के रूप में ही नहीं वरन सभी संबंधों से परे सामाजिक रूप में भी देखा जा सकता है  । राजनीति क्षेत्र में वह एक नेता है तो सामाजिक क्षेत्र में डॉक्टर,  वकील आदि जैसे कई महत्वपूर्ण कार्य स्त्री कर रही है ।  शताब्दियों से स्त्री को दबी घुटी एवं आश्रित देखने वाले इस अभ्यस्त पुरुष समाज ने स्त्री के इस स्वाबलंबी स्वरूप को भले ही स्वार्थी और आत्म केंद्रित भावों से भरपूर कह दिया । परंतु स्त्री के एक नए स्वाबलंबी रूप से ही सामाजिक परिवर्तन को एक नई दिशा मिली  है ।

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