हिंदी भारत के ह्रदय की भाषा है ,,,,!!
निसंदेह मनुष्य में पशु सुलभ आदिमानव मनोव्रतिया जीवित है उनके अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । थोड़ी सी भी उत्तेजना पाकर वे झनझना उठती है । साहित्यकार को इनकी उत्तेजना जगाने में विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता । अगर इन आदि मनोवृतियों को ही उपजीवी बनाकर मनुष्य अपना कारोबार प्रारंभ कर दे । तो उसे बहुत प्रयास नहीं करना पड़ेगा । परंतु संयम और निष्ठा धैर्य और दृढ़ता साधना से प्राप्त होती है । उसके लिए श्रम की जरूरत होती है । साहित्यकार को अविचलित चित् से उन गुणों की महिमा समाज में प्रतिष्ठित करनी है । जिन्हें मनुष्य ने वर्षों की साधना और तपस्या से पाया है जिस स्वाधीनता के लिए हम दीर्घकाल से तड़प रहे थे वह हमें मिल गई है । साहित्यकार ने इसके आवाहन में पूरी शक्ति लगा दी थी । आज उसे अपने को महान उत्तरदायित्व के योग्य सिद्ध करना है । मनुष्य को अज्ञान , मोह को कुसंस्कार और परमुखा - पेक्षिता से बचाना ही साहित्य का वास्तविक लक्ष्य है । इससे छोटे लक्ष्य की बात मुझे अच्छी नहीं लगती ।
इसी महान उद्देश्य कि यदि हिंदी पूर्ति कर सके तभी वह उस महान उत्तरदायित्व के योग्य होगी जो इतिहास विधाता की ओर से उसे मिला है । मेरे लिए हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य कोई देव प्रतिमा नहीं है। जिसका नाम जप कर और आरती उतारकर हम संतुष्ट हो जाएंगे । हिंदी भारतवर्ष के हृदय देश में स्थित करोड़ों नर नारियों के हृदय और मस्तिष्क को खुराक देने वाली भाषा है । साहित्यिक भाषा उसके हृदय और मस्तिष्क की भूख मिटाने वाली भाषा । करोड़ों की आशा - आकांक्षा , अनुराग - विराग , रुदन - हास्य की भाषा। उसमें साहित्य लिखने का अर्थ यह है कि करोड़ों के मानसिक स्तर को ऊंचा करना । करोड़ों को अज्ञान और संस्कार से मुक्त करना । केवल शिक्षित और पंडित बना देने से ही काम नहीं हो सकता । वह शिक्षा किसी काम की जो दूसरों के शोषण में अपने स्वार्थ साधन में ही अपनी चरम सार्थकता समझती हो । इसलिए आज हमारे सामने जब गंभीर साहित्य लिखने का बहाना आकर उपस्थित हुआ है मैं सभी से विनय पूर्वक अनुरोध कर रही हूं कि जो कुछ भी लिखो उसे अपने महान उद्देश्य के अनुकूल बनाकर लिखो । संसार के अन्य राष्ट्रों ने अपने साहित्य को जिस दृष्टि से लिखा है । उसकी प्रतिक्रिया और अनुसरण नहीं होना चाहिए ।
समूची मनुष्यता जिससे लाभान्वित हो एक जाति दूसरी जाति से घृणा न करके प्रेम करें एक समूह दूसरे समूह को दूर रखने की इच्छा ना कर के पास लाने का प्रयत्न करें । कोई किसी का आश्रित न हो । कोई किसी से वंचित ना हो । इस महान उद्देश्य से ही हमारा साहित्य प्रणोदक होना चाहिए ।
इन आदिम व्रतियों को उपजीव्य बनाने के लिए संयम निष्ठा धैर्य एवं दृढ़ चित की आवश्यकता है । जिनकी की प्राप्ति श्रम साध्य है । दीर्घकालीन साधना द्वारा जिन की प्रतिष्ठा होती है ।
हिंदी भारत के हृदय की भाषा है । शिक्षित वर्ग में सीमित न रहकर उसे प्रत्येक भारतवासी के सुख-दुख को वाणी प्रदान करने की भाषा बनना होगा । हिंदी के साहित्यकार का यह परम कर्तव्य बनता है कि वह अन्य राष्ट्रों का अनुसरण ना करें वह अपने महान उद्देश्य को सामने रखकर साहित्य सृजन करें । जिससे मनुष्य मात्र प्रेम पूरित आत्मनिर्भर एवं अभाव रहित बन सके ।
साहित्यकार मनुष्य की आत्मा को झकझोर कर उनमें संयम और निष्ठा धैर्य और दृढ़ता को प्रात व प्रादुर्भाव कर इस स्वाधीनता रूपी वृक्ष को पुष्पित और पल्लवित कर सकते हैं जिसे हमने दीर्घ काल की तड़प वर्षों की साधना और तपस्या से प्राप्त किया है ।
इसी महान उद्देश्य कि यदि हिंदी पूर्ति कर सके तभी वह उस महान उत्तरदायित्व के योग्य होगी जो इतिहास विधाता की ओर से उसे मिला है । मेरे लिए हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य कोई देव प्रतिमा नहीं है। जिसका नाम जप कर और आरती उतारकर हम संतुष्ट हो जाएंगे । हिंदी भारतवर्ष के हृदय देश में स्थित करोड़ों नर नारियों के हृदय और मस्तिष्क को खुराक देने वाली भाषा है । साहित्यिक भाषा उसके हृदय और मस्तिष्क की भूख मिटाने वाली भाषा । करोड़ों की आशा - आकांक्षा , अनुराग - विराग , रुदन - हास्य की भाषा। उसमें साहित्य लिखने का अर्थ यह है कि करोड़ों के मानसिक स्तर को ऊंचा करना । करोड़ों को अज्ञान और संस्कार से मुक्त करना । केवल शिक्षित और पंडित बना देने से ही काम नहीं हो सकता । वह शिक्षा किसी काम की जो दूसरों के शोषण में अपने स्वार्थ साधन में ही अपनी चरम सार्थकता समझती हो । इसलिए आज हमारे सामने जब गंभीर साहित्य लिखने का बहाना आकर उपस्थित हुआ है मैं सभी से विनय पूर्वक अनुरोध कर रही हूं कि जो कुछ भी लिखो उसे अपने महान उद्देश्य के अनुकूल बनाकर लिखो । संसार के अन्य राष्ट्रों ने अपने साहित्य को जिस दृष्टि से लिखा है । उसकी प्रतिक्रिया और अनुसरण नहीं होना चाहिए ।
समूची मनुष्यता जिससे लाभान्वित हो एक जाति दूसरी जाति से घृणा न करके प्रेम करें एक समूह दूसरे समूह को दूर रखने की इच्छा ना कर के पास लाने का प्रयत्न करें । कोई किसी का आश्रित न हो । कोई किसी से वंचित ना हो । इस महान उद्देश्य से ही हमारा साहित्य प्रणोदक होना चाहिए ।
इन आदिम व्रतियों को उपजीव्य बनाने के लिए संयम निष्ठा धैर्य एवं दृढ़ चित की आवश्यकता है । जिनकी की प्राप्ति श्रम साध्य है । दीर्घकालीन साधना द्वारा जिन की प्रतिष्ठा होती है ।
हिंदी भारत के हृदय की भाषा है । शिक्षित वर्ग में सीमित न रहकर उसे प्रत्येक भारतवासी के सुख-दुख को वाणी प्रदान करने की भाषा बनना होगा । हिंदी के साहित्यकार का यह परम कर्तव्य बनता है कि वह अन्य राष्ट्रों का अनुसरण ना करें वह अपने महान उद्देश्य को सामने रखकर साहित्य सृजन करें । जिससे मनुष्य मात्र प्रेम पूरित आत्मनिर्भर एवं अभाव रहित बन सके ।
साहित्यकार मनुष्य की आत्मा को झकझोर कर उनमें संयम और निष्ठा धैर्य और दृढ़ता को प्रात व प्रादुर्भाव कर इस स्वाधीनता रूपी वृक्ष को पुष्पित और पल्लवित कर सकते हैं जिसे हमने दीर्घ काल की तड़प वर्षों की साधना और तपस्या से प्राप्त किया है ।
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