मापदण्ड ,,,,

प्रत्येक सभ्यता के कुछ मूलभूत मूल्य और विश्वास होते हैं ।  जिनकी भित्ति पर सामाजिक संरचना निर्मित होती है  । स्त्री और पुरुष के संबंधों की नैतिक मर्यादा और संस्थानात्मक परिणति या उन मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है और उस समाज की व्यवस्था का परिचय भी देती है ।  स्त्री और पुरुष के संबंध सर्वकालिक और सर्वदेशिक होते हुए भी प्रत्येक समाज में प्रत्येक युग में अलग-अलग मूल्यों का रस व्याप्त रहता है । उन संबंधों की आकृतियां अनेक है उनके कलेवर और उनकी साज-सज्जा में आंचलिक विचित्रताये भी है उनकी शैली और शब्दावली भी भिन्न है ।  समाज व्यवस्था का आधार सभ्यता के कुछ मूल्य और विश्वास है ।  जो स्त्री-पुरुष संबंधों की मर्यादाओं और संस्थानात्मक परिणीतियो प्रतिबिंबित होते हैं । यह स्त्री पुरुष संबंध सर्व देशिक और सार्वकालिक होते हुए भी युग और समाज के अनुरूप कुछ भिन्नता रखते हैं । इसलिए और पुरुष के संबंधों की नैतिक मर्यादाऐ उनके मूल्यों प्रतिबिंब है जो कि समाज व्यवस्था का परिचय प्रदान करती है ।  स्त्री और पुरुष के प्रकृति प्रदत भेद को भी स्पष्ट किया जा सकता है कि पुरुष के रसास्वादन उसकी वेशभूषा स्त्री से कई मायनों में पृथक है ।  तथा यही तथ्य स्त्री पर भी लागू होता है ।  दोनों की विचार शैली शब्दावली कार्यपद्धती व्यवस्था आदि में मूलभूत भिन्नता पाई जाती है ।


 जैसा कि मैं पूर्व लेख में कह चुकी हूं कि आधुनिक शिक्षाप्रद स्त्रियाँ अच्छी गृहणी  नहीं बन सकती  ,,,,,, यह प्रचलित धारणा पुरुष के दृष्टि बिंदु से देखकर ही बनाई गई है । स्त्री की कठिनाइयों को ध्यान में रखकर नहीं ,,,,,एक ही प्रकार के वातावरण में पले और शिक्षा पाए हुए पति-पत्नी के जीवन तथा परिस्थितियों की तुलना करें तो संभव है कि आधुनिक शिक्षित स्त्री के प्रति कुछ सहानुभूति अनुभव कर सकें ।

 विवाह से पुरुष को तो कुछ छोड़ना नहीं पड़ता और ना उसकी स्थितियों में ही कोई अंतर आता है । परंतु इसके विपरीत स्त्री के लिए विवाह मानो एक परिचित संसार को छोड़कर नवीन संसार में जाना है । इसका जीवन नवीन होगा ,,,, पुरुष के मित्र उसकी जीवनचर्या उसके कर्तव्य सब पहले के जैसे ही रहते हैं ,,,, और वह अनुदार ना होने पर भी शिक्षित पत्नी के परिचित मित्रों अध्ययन तथा अन्य परिचित दैनिक कार्यों के अभाव को नहीं देख पाता ।  साधारण परिस्थिति होने पर भी घर में इतर कार्यों से स्त्री को अवकाश रहता है ।  संयुक्त कुटुंब ना होने से बड़े परिवार की ओर से भी स्त्रियों बड़े परिवार की उलझन भी  स्त्रियों को मिलती है । अतः एक विचित्र अभाव का बोध उसे होने लगता है कभी-कभी पति के आने जाने जैसी छोटी बातों में भी बाधा देने पर वह विरक्त भी हो उठती है ।  अच्छी गृहणी कहलाने के लिए उसे केवल पति की इच्छा अनुसार कार्य करने तथा मित्रों और कर्तव्यों से अवकाश के समय उसे प्रसन्न रखने के अतिरिक्त और कुछ विशेष नहीं करना होता ।  परंतु यह छोटा सा कर्तव्य उसके महान अभाव को नहीं भर पाता । संयुक्त कुटुंब की प्रथा ना होने से अन्य पुरुष की मित्रता की अस्वीकारोक्ति ,,, स्त्री  को आंशिक स्वतंत्र ही माना गया है क्योंकि उसकी स्वतंत्रता घर की चारदीवारी तक ही सीमित है,,,,,
 पुरुष विवाह उपरांत पूर्व की भांति ही स्वतंत्र है ,,,,उसकी जीवन चर्या तथा कर्तव्य भी पूर्ववत बने रहते हैं ।।

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