** तुलसी के राम **
**तुलसी के राम**
तुलसीदास के राम उस जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं । जो अपने आत्म बल के बूते पर आंतरिक स्थितियों से सामंजस्य बैठाती हुई अन्याय और असत्य के संघर्ष को न्याय और सत्य से झेलती है । इनका एक ही लक्ष्य है - सत्य और एक ही अस्त्र है - विवेक । तुलसीदास के राम केवल अन्याय के प्रतिरोदार्थ अस्त्र उठाते हैं । इनके लिए युद्ध वह स्थिति है जो सत्य और न्याय के सारे द्वार बंद कर देती है । वह स्थिति थोप दी जाती है और जिसे राग द्वेष रहित होकर हटाने के सिवा और कोई दूसरा चारा नहीं है । यह साधन हीन का साधन संपन्न से संघर्ष है । इसकी चरम परिणति तब दिखाई देती है जब रावण रथारूढ़ होकर युद्ध भूमि में आता हे । और साधन हीन राम रथ की कौन कहे तन - पद - प्राण तक के बिना उसका सामना करने के लिए सन्नद्ध होते हैं । युग - संशय के रूप में विभीषण इस संघर्ष की प्रकृति और परिणाम के प्रति आशंकित होकर धीरज खो बैठते है । राम के इस कार्य के संघर्ष के क्या मायने हैं । वह समझ नहीं पाते । तुलसीदास के राम भरत सीता आदि चरित्रों में स्पष्ट रूप से लोक साधना का प्रतिमूर्तन भी देखा जा सकता है । प्रत्येक देश अथवा जाति के जीवन में एक ऐसी स्थिति आती है । उन्हें स्वयं को साधारण जीव ही नहीं विराट पुरुष भी मानना पड़ता है । यही अस्तित्व बहुत है अथवा उच्चतर स्थिति का बोध है तुलसी के राम भरत आदि उन सभी परिस्थितियों से गुजरे हैं । जिनमें से होकर हर पराधीन स्थिति से सामान्य व्यक्ति अथवा समाज को गुजरना पड़ता है यह पराधीन स्थिति राजनीतिक ही नहीं सामाजिक, आर्थिक अथवा व्यक्तिक भी हो सकती है ।राम से संबंध हर घटना,,, चाहे वह निर्वासन की हो,,, चाहे सीता के अपहरण अथवा रावण से युद्ध की । पर राम का रामत्व इसी बात में निहित है कि उन्होंने नियति नियति के हर विधान को अपने विवेक से अपने कर्तव्य पालन का ही अभिन्न अंग बना लिया ।
संकट एवं संत्रास को कर्तव्य की गरिमा से अभिषेक करने से पूर्व उस स्थिति के प्रत्येक व्यक्ति की तरह ही राम को भी आत्म निर्वासन या यातनामय आत्म संघर्ष जैसी अनेक अनिवार्य मनः स्थितियों से गुजरना पड़ा है ।
सीता के अपहरण से लेकर रावण से युद्ध करने तक का राम का आत्म संघर्ष देख सकते हैं । विवेक की भूमि से प्रारंभ होने वाले आत्म संघर्ष की स्पष्ट झांकी पाना कठिन होता है । सीता हरण के बाद से ही सर्वप्रथम राम को असहाय होने का अनुभव होता है यहीं से विस्थापित और अजनबी होने का भाव भी प्रकट होता है । शत्रु की चिंता अपने अनिश्चित भविष्य की चिंता , जानकी के लिए करुणा , राक्षसों के प्रति उत्तेजना , बाली वध का पश्चाताप आदि संबंधी यात्रा में आत्म संघर्ष का चक्र चलता है । राम इन सब पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और रावण से युद्ध करने से पूर्व ' सौरभ धीरज तेहि रथ चाका ' वाले धर्म रथ की मृत्युंजय भूमिका तक पहुंच जाते हैं ।
इसकी थोड़ी सी बानगी तुलसी के वर्षा एवं शरद के ऋतु वर्णनो में भी देखी जा सकती हैं । दोनों ही ऋतुओं के वर्णन अत्यंत परंपरा चरित आक्रांत दिखाई देते हैं । पर ऐसी बात नहीं ऋतु वर्णन के अंतर्गत उपमान के रूप में बार-बार आए नैतिक मूल्यों एवं धार्मिक निष्ठाओं के अनु कथनों द्वारा स्वयं अपने भीतर इनकी दृढ़ प्रतिष्ठा भी कर रहे हैं और आत्मबल पाने की विवेकपूर्ण साधना भी है । शरद ऋतु तक राम का व्यक्तित्व हर दृष्टि से पूर्ण बन जाता है । तभी एक और उनका यह आत्मविश्वास दिखाई देता है कि ---- ' एक बार कैसे हूँ सुधी जानो कालहू जीती निमिष महम आनो ' तो दूसरी तरफ के आत्म बल पर इसी प्रकार का सात्विक क्रोध भी प्रकट हो जाता है --- " जोहि सायक मारा मैं बाली । तेहि सर हतो मूढ़ कह काली ।"
लेकिन यह क्रोध विवेक की साधना का परिणाम है । अतः करुणा से भरपूर है इसलिए सुग्रीव को दंड देने के लिए प्रस्थान करने वाले लक्ष्मण से वे कहते हैं -- " तब अनुज ही समझावां रघुपति करुणासींव । भय देखाई ले आवहु तात सखा सुग्रीव ।। " शरद ऋतु वर्णन के अंत होते-होते राम के व्यक्तित्व मैं अदम्य आत्म बल पूर्ण एकाग्रता और विवेक में दिव्य शांति का प्रकाश छा जाता है । सभी दृश्यों से पूर्ण और उन्नत यही व्यक्तित्व धर्म रथ का प्रवर्तक बनता है । संभवत इसलिए दोनों ऋतुओ के वर्णन धर्म युद्ध की ओर उन्मुख होने वाले पहले ही किष्किंधा कांड में आ गए हैं ।
इन्हीं प्रक्रियाओं के अंतर्गत राम संतत्त्व के प्रतीक हैं । यह भीतर और बाहर एकरस हैं । तुलसी के राम में मानव सुरभि दुर्बलता कभी प्रकट होकर सामने नहीं आई है । इनमें अपने और पराए का अंतर ही नहीं रह गया है । संपूर्ण जीवन कर्तव्य को समर्पित है तभी ना किसी के प्रति संशय है और ना किसी के चीज के लिए उद्विग्नता है चरित्र में आद्यंत व्यक्तित्व की एकाग्रता और अखंडता तथा शांति की दिव्यता है । तुलसीदास के राम का यह चरित्र उनका शील और उनकी करुणा भारतीय साहित्य में अद्वितीय है इसी अद्विता के क्रम में से यह मनुष्य से कहीं अधिक देबोपम ईश्वर बन गए हैं । शील और करुणा की भूमि पर उनका चरित्र जितना ही मान अनासक्ति और आत्म संयम की भूमि पर उतना ही अति मानवीय है । तुलसीदास के राम अशोक वाटिका तक किशोर है फिर उसके बाद केवल कर्तव्य परायण फ्रॉड है इसे भारतीय परंपरा का निर्वाह भी माना जा सकता है इसी प्रकार इनमें शांति तो है पर क्रोध नहीं है । यदि क्षणभर को उत्तेजना आती भी है तो वह स्वभावगत विवेक हावी होकर उसे ठंडा भी कर देता है । सीता राम की तरह या तो किशोरी है या फिर जगत जननी है । इन्हीं धरातल पर तुलसीदास के राम अधिक यथार्थ प्रतीत होते हैं तुलसीदास के राम अपने अपने परिवेश में अपनी अपनी प्रकृति के अनन्य है ।
तुलसीदास के राम केवल अन्याय के प्रतिरोदार्थ अस्त्र उठाते हैं । इनके लिए युद्ध वह स्थिति है जो सत्य और न्याय के सारे द्वार बंद कर देती है । वह स्थिति थोप दी जाती है और जिसे राग द्वेष रहित होकर हटाने के सिवा और कोई दूसरा चारा नहीं है । यह साधन हीन का साधन संपन्न से संघर्ष है । इसकी चरम परिणति तब दिखाई देती है जब रावण रथारूढ़ होकर युद्ध भूमि में आता हे । और साधन हीन राम रथ की कौन कहे तन - पद - प्राण तक के बिना उसका सामना करने के लिए सन्नद्ध होते हैं । युग - संशय के रूप में विभीषण इस संघर्ष की प्रकृति और परिणाम के प्रति आशंकित होकर धीरज खो बैठते है । राम के इस कार्य के संघर्ष के क्या मायने हैं । वह समझ नहीं पाते । तुलसीदास के राम भरत सीता आदि चरित्रों में स्पष्ट रूप से लोक साधना का प्रतिमूर्तन भी देखा जा सकता है । प्रत्येक देश अथवा जाति के जीवन में एक ऐसी स्थिति आती है । उन्हें स्वयं को साधारण जीव ही नहीं विराट पुरुष भी मानना पड़ता है । यही अस्तित्व बहुत है अथवा उच्चतर स्थिति का बोध है तुलसी के राम भरत आदि उन सभी परिस्थितियों से गुजरे हैं । जिनमें से होकर हर पराधीन स्थिति से सामान्य व्यक्ति अथवा समाज को गुजरना पड़ता है यह पराधीन स्थिति राजनीतिक ही नहीं समष्टिगत कल्याण की भावना से ओतप्रोत थे।
तुलसी के अनुसार राजा में केवल त्याग का ही नहीं वीरता एवं पराक्रम का भी गुण होना चाहिए । तभी वह दुष्ट दमन तथा सज्जन रक्षक में समर्थ हो सकेगा । और राम में दोनों ही गुणों का समावेश है । तुलसी ने राजा के सम्मुख सूर्य का आदर्श रखा था जो जल कब सोख लेता है इसका पता तो नहीं चलता किंतु जल बरसता है तो प्रजा कृतकृत्य हो उठती है राज्य कर संबंधी आदर्श राजा को मुखिया के समान बनने का संकेत भी उन्होंने किया कर लेकर उनका उपयोग केवल स्वयं ना करें वरन उसे प्रजा का ही पालन करें ---
" मुखिया मुख सो चाहिए खान पान को एक ।
पालइ पोषई सकल अंग तुलसी सहित विवेक ।"
महाकवि तुलसी एक लोक वादी कलाकार थे । इसलिए उन्होंने राम में शील , शक्ति और सौंदर्य का संचार किया । शील , शक्ति और सौंदर्य मनुष्य जीवन की तीन ऐसी विभूतियां हैं । जिनमें जीवन समुचित रूप धारण कर लेता है । शील के बिना जीवन नीरस , घृणास्पद और कटु हो जाता है । शक्ति के बिना वह दुर्बल, अशक्त और पंगु बन जाता है तथा सौंदर्य के बिना अनआकर्षक हो जाता है । राम के जीवन में यह तीनों विभूतिया समुचित रूप में पाई जाती है । इन्हीं तीनों विभूतियों के आधार पर तुलसी के राम एक मर्यादावादी लोकनायक बनते हैं ।
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