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स्त्री

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स्त्री तो अनादि काल से ही मानव ह्रदय की राग आत्मक व्रतियों की प्रेरणा स्त्रोत रही है । द्विवेदी जी ने स्त्री पक्ष का समर्थन करते हुए कहा है कि --- "पति को देवतुल्य हम माने , बच्चों की भी दासी है , सेवा सदा करे नहीं सोचे , भूखी हो या प्यासी हे भगवान हाय तिस पर भी उपमा कैसे आती है ढोल - तुल्य ताड़न अधिकारी हम बनाई जाती हैं ।" इस प्रकार स्त्री की उच्च भावना का विकास इन पंक्तियों में देखा जा सकता है । आधुनिक स्त्री ने स्वयं के महत्व को प्रतिष्ठित किया है । स्त्री में स्वाभिमान और आत्म समर्पण की भावना अत्यधिक होती है उसे आप अपने अधिकारों की चिंता है क्योंकि वह अब शिक्षित है स्त्रियों ने आज विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक प्रवेश किया है शिक्षक , डॉक्टर , वकील और प्रशासक के रूप में स्त्री ने अपनी प्रभावी भूमिका भी निभाई है । यह सिद्ध सत्य है कि यदि माता शिक्षित नहीं होगी तो देश की संतानों का कदापि कल्याण नहीं हो सकता बालक का प्रारंभिक ज्ञान ही पत्थर पर बनी अमित लकीर के समान होता है जो एक माता अपनी संतान को देती है । लेकिन वर्तमान समय में कुछ असामाजिक तत्वों ने मां

स्त्री

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"विशेल कामदर्तो व गुणरवा परिवाजित : उपचय: स्त्रियासाधव्या सतत देववत पति : " तात्पर्य पति चाहे शील रहित हो ,काम पूर्ण हो या अवगुण युक्त हो , कैसा भी क्यों ना हो स्त्री के द्वारा उसकी सेवा सदा देवता तुल्य होनी चाहिए । कुछ सवाल हम सभी को सोचने पर विवश कर देते हैं ----- क्या स्त्री का धर्म अधिकारी पुरुष अधिकृत पत्नी बन कर रहना है ,,?? क्या सारे नियम बंधन स्त्री के लिए ही है ,,,?? क्या पुरुष परम स्वतंत्र है ,,,?? क्या सारे समाज में पुरुष के आना चार को अनदेखा किया जाता है ,,,?? क्या स्त्री को ही सब कुछ सहन करना होता है,,,?? परिवार में बच्चे पैदा करने से लेकर बच्चों की पढ़ाई तथा उसके शादी ब्याह जैसे निर्णय लेने का अधिकार स्त्री को नहीं होता इस प्रकार स्त्री दोहरे दर्जे की जिंदगी व्यतीत करती है । हिंदी में स्त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है लेकिन विडंबना यही है कि हिंदी में जो स्त्री विमर्श चल रहा है उसका इस वैश्विक विचारधारा से बहुत कम लेना देना है या नहीं के बराबर है । हिंदी में जो भी स्त्री विमर्श है उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह सिर्फ साहित्यिक दायरे तक सिमटा