अब मैं कहती नहीं ,,,,,देखती हूं ,,,,, और लिख देती हूं ,,,,,और,,,,,, ना अब मैं लोगों से मिलती हूं ,,,,बस परखती हूं ,,!! इस *मैं * का यह कायांतरण ,,,, कितना सार्थक और सजीव है इसका निर्णय तो आप सभी पाठकों के हाथ में ही है । एक लेखक होने के नाते मेरा दायित्व तो उन सभी मुद्दों पर लिखना या लिखने की कोशिश करना है । जो कहीं ना कहीं एक ऐसे समाज के निर्माण के सपनों से जुड़ा है जो समान रूप से स्त्री और पुरुष दोनों का है । निःसंदेह यही सपना अनेक स्त्रियों का भी है । पुरुष स्त्री सरोकार की बहुत बड़ी बड़ी बातें कहता है वह उसका एक ऐसा कोरा और मिथ्या आदर्शवाद है जो यथार्थ की जमीन पर टिक नहीं पाता । पुरुष ने अपने दोगलापन से स्त्री को हमेशा से भ्रमित किया है और एकछत्र शासन करता आया है । इतना ही काफी नहीं मैंने इस समाज में ऐसी बहुत सी स्त्रियां भी देखी है जो स्त्री चेतना को लेकर चिल्लाती तो बहुत है लेकिन उनके वास्तविक कार्य शून्य के बराबर ही होते हैं । क्योंकि जिस कथित समाज की सीमाओं के अंतर्गत वह झुकने की बात करती है वह सभी सीमाएं भी पुरुषों द्वारा ही निर्धारित की जाती रही है ।
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