नारी विमर्श ,, नारी मुक्ति का मकसद क्या है ,,,??

” अवलम्ब है सबको मगर
    नारी बहुत असहाय है । ”

स्त्रियाँ समाज की नैतिक प्रतीक होती हैं । स्त्री का अस्तित्व सामाजिक व्यवस्था की रियायतों पर टिका है । वर्तमान समय में नारी होकर पुरूषों के समकक्ष होना तो सामान्य बात है । वह अनेकांश में पुरूषों से श्रेष्ठ सिद्ध हुई है । एक स्त्री बल , विद्या , बुद्धि , सयंम लोककल्याण की भावना , वात्सल्य आदि गुणों के कारण नर से आगे बढ़कर इस धरा को स्वर्ग बनाने की क्षमता रखती है । एक स्त्री अशांत वातावरण में शांति का बीजारोपण करने में समर्थ है जब स्त्री स्वयं अपनी काबलियत से आगे आ रही है तो यह बैसाखियां क्यों ,,,,??
नारी के पास ईश्वर के बाद वह शक्ति है जो मर्द के पास नहीं है वह मर्द को जन्म देती है और गोद की गर्मी से उसे जीवन – दान देती है । उसके हाथों में परिवार की बागडोर रहती है । एक औरत जो घर चलाती है , बच्चों को साफ – सुथरे कपड़े ओर संतुलित आहार देती है — लेकिन कोई सवाल नही पूछती है ।
नारी ,नर की सहचरी है । आवश्यता पड़ने पर वह संरक्षिका भी बन जाती है । आज किसी भी मंत्रालय में , प्राइवेट सेक्टर में , दुकानों में , आपको औरतें – लड़कियां काम करती नज़र आ जाएंगी । ये सारी औरतें जरूरतमंद ही हो ऐसा नहीं है , कुछ सम्पन्न घराने से भी होती है
क्योकि शिक्षा प्राप्त कर ली है, जागरूक है इसलिए घर में सारे दिन बेकार नहीं बैठ सकती है । और इसमें कोई शक नहीं कि हर क्षेत्र में महिलाएं अपनी दक्षता से अपने क्षेत्र मे कार्य कर रही है ।
” जग के रंगमंच की संगिनी
अमि परिहास हास रस रंगीनी
उर मरूपथ की सरल तरंगिनि। ”
लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हमारे समाज ने नारी को वास्तविक रूप में एक ठोस भावनात्मक व्यक्त्वि प्रदान किया है ,,,, ?? ,,,, ओर यदि किया है तो फिर ये बलात्कार , अवैध बच्चे , तलाक , गर्भपात , हिंसा , आत्महत्या , के हर वर्ष बढ़ते अनुपात किस बात की ओर संकेत करते है ,,,, ??
स्त्रियाँ पुरूषों से अधिक कार्य करती है । घर की अर्थव्यवस्था ,, व्यवस्था दोनों ही स्त्रियों की हाड़तोड़ मेहनत मशक्कत पर निर्भर करती है । पुरूषों से बराबरी करने के पीछे उसकी श्रमशील व्यक्त्वि की भूमिका एक निर्णायक तत्व है , जिसे नज़रअंदाज़ नही किया जाना चाहिए ।
वह जब भी अंकुश ओर तानाशाही का शिकार हुई है या जब भी कभी किसी आंतरिक पीड़ा में दोहरा हुई है तो उसके चित्कार ने आकाश पाताल को हिला कर रख दिया है ।
इन आयामों में जीना ही स्त्री की नियति बनती जा रही है । लेकिन यह भी सच है कि इस स्थिति को यहाँ तक खींच कर लाने वाले भी हम ही है ।
सामंतवादी पुरुष प्रधान इस समाज में औरत को आज़ादी मिलती उतनी ही है जितनी पुरुष उसे देता है या देना चाहता है ।।

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