स्त्री - पुरुष के लिए अलग अलग विधान क्यों ,,,??
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जब कभी मैं नारी विमर्श से जुड़े हुए आलेख पढ़ती हूं तो वह मेरे मन की पीड़ाओं को अत्यधिक बढ़ा देता है । सिर्फ कहानी उपन्यासों वह कविता तथा स्त्री पक्ष को झकझोर कर देने वाली आत्मकथाएं भी मेरे समक्ष कई सवाल खड़े कर देती है ।
1975 में अंग्रेजी की मशहूर कवियत्रि ' कमला दास ' की आत्मकथा ' माय स्टोरी ' नाम से छपी । यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो वैवाहिक जीवन के नाकाम हो जाने पर किसी बाहरी प्रेम की तलाश करती है । लेकिन उस पर भी कई लेखक व विद्वान सवाल खड़े कर देते हैं । यद्यपि हमारा जीवन सिर्फ हमारा जीवन नही है हमारे साथ कई और जिंदगी अभी जुड़ी हुई है । जब हम बेबाक होकर अपनी दास्तान कहते हैं तो अपने साथ तमाम लोगों को भी बेपर्दा कर देते हैं । हर कोई ऐसे अनावृत होकर जीना पसंद नहीं करता ।
इतिहास साक्षी है कि महिलाओं की स्थिति सभी देशों में दयनीय ही रही है उन्हें हर जगह दोयम दर्जे का ही माना गया है ।
पति-पत्नी के झगड़े तो आम बनते जा रहे हैं । दोनों के बीच सामान्य से नोकझोंक से तो प्रेम बढ़ता है । लेकिन कहीं-कहीं यह झगड़े इतना अत्यधिक बढ़ जाते हैं कि गाली गलौज , मारपीट , अलगाव , कोर्ट कचहरी , तलाक , आत्महत्या या क़त्ल तक भी पहुंच जाते हैं । हालांकि यह प्रश्न बहुत जटिल प्रश्न है और इसका सही उत्तर ढूंढ पाना भी मुश्किल है ।
समर्पण में विवशता नहीं आत्मतोष होता है पछतावा नहीं गर्व होता है । यह तभी संभव है जब स्त्री स्वतंत्रता से स्वेच्छा से पत्नीत्व स्वीकार करें । परवशता में स्वीकार किए गए बंधन में सुख और संतोष प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में विवाह उसके लिए वरदान ना होकर अभिशाप बन जाता है ।
जब शारीरिक आवश्यकताओं की दृष्टि से स्त्री व पुरुष समान है तो फिर समूची नैतिकताओं का सड़ा बोझ परंपरा और पवित्रता वाद का कूड़ा स्त्री के सिर ही क्यों जाता है ।
विधवा के लिए पतिव्रत धर्म एक खोखला सामाजिक एवं नैतिक मूल्य है । वैज्ञानिक सत्य तो यह है कि जीवित प्राणी परिस्थितियों से समझौता करता है । विधवा भी पति की मृत्यु के पश्चात नई परिस्थितियों से समझौता करने के लिए बाध्य है ।
उसका यह प्रकृति जन्य समझोता यदि समाज स्वीकार नहीं करता है तो वह निश्चित रूप से अनैतिक रूप ले लेता है इसी अनैतिकता का परिणाम यह है कि अनेक सामाजिक समस्याओं का उठ खड़ा होना ।
परिवार के अंतर्गत स्त्री के लिए आचरण की शुद्धता पर जोर दिया जाता है इसका प्रमुख कारण उसकी देह और गर्भ पर अधिकार की चेतना है । स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग विधान की विषमता भी एक विचारणीय प्रश्न है ।
पुरुष के लिए अनेक विवाह की अनुमति और स्त्री के लिए एक विवाह के विधान में विधवाओं की समाज़ में स्थिति को अत्यधिक दयनीय बना देता है ।
देश और समाज में व्याप्त अंध परंपराओं , अंधविश्वासों और अंधरूढ़ियों के कारण स्त्री का समुचित उत्थान व विकास संभव नहीं हो पाता है ।
मेरा तात्पर्य उनमें सुधार की चिप्पी लगाना मात्र नहीं बल्कि उसे जीर्ण-शीर्ण और रुग्ण बताकर त्याज्य साबित करना है ।
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जब कभी मैं नारी विमर्श से जुड़े हुए आलेख पढ़ती हूं तो वह मेरे मन की पीड़ाओं को अत्यधिक बढ़ा देता है । सिर्फ कहानी उपन्यासों वह कविता तथा स्त्री पक्ष को झकझोर कर देने वाली आत्मकथाएं भी मेरे समक्ष कई सवाल खड़े कर देती है ।
1975 में अंग्रेजी की मशहूर कवियत्रि ' कमला दास ' की आत्मकथा ' माय स्टोरी ' नाम से छपी । यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो वैवाहिक जीवन के नाकाम हो जाने पर किसी बाहरी प्रेम की तलाश करती है । लेकिन उस पर भी कई लेखक व विद्वान सवाल खड़े कर देते हैं । यद्यपि हमारा जीवन सिर्फ हमारा जीवन नही है हमारे साथ कई और जिंदगी अभी जुड़ी हुई है । जब हम बेबाक होकर अपनी दास्तान कहते हैं तो अपने साथ तमाम लोगों को भी बेपर्दा कर देते हैं । हर कोई ऐसे अनावृत होकर जीना पसंद नहीं करता ।
इतिहास साक्षी है कि महिलाओं की स्थिति सभी देशों में दयनीय ही रही है उन्हें हर जगह दोयम दर्जे का ही माना गया है ।
पति-पत्नी के झगड़े तो आम बनते जा रहे हैं । दोनों के बीच सामान्य से नोकझोंक से तो प्रेम बढ़ता है । लेकिन कहीं-कहीं यह झगड़े इतना अत्यधिक बढ़ जाते हैं कि गाली गलौज , मारपीट , अलगाव , कोर्ट कचहरी , तलाक , आत्महत्या या क़त्ल तक भी पहुंच जाते हैं । हालांकि यह प्रश्न बहुत जटिल प्रश्न है और इसका सही उत्तर ढूंढ पाना भी मुश्किल है ।
समर्पण में विवशता नहीं आत्मतोष होता है पछतावा नहीं गर्व होता है । यह तभी संभव है जब स्त्री स्वतंत्रता से स्वेच्छा से पत्नीत्व स्वीकार करें । परवशता में स्वीकार किए गए बंधन में सुख और संतोष प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में विवाह उसके लिए वरदान ना होकर अभिशाप बन जाता है ।
जब शारीरिक आवश्यकताओं की दृष्टि से स्त्री व पुरुष समान है तो फिर समूची नैतिकताओं का सड़ा बोझ परंपरा और पवित्रता वाद का कूड़ा स्त्री के सिर ही क्यों जाता है ।
विधवा के लिए पतिव्रत धर्म एक खोखला सामाजिक एवं नैतिक मूल्य है । वैज्ञानिक सत्य तो यह है कि जीवित प्राणी परिस्थितियों से समझौता करता है । विधवा भी पति की मृत्यु के पश्चात नई परिस्थितियों से समझौता करने के लिए बाध्य है ।
उसका यह प्रकृति जन्य समझोता यदि समाज स्वीकार नहीं करता है तो वह निश्चित रूप से अनैतिक रूप ले लेता है इसी अनैतिकता का परिणाम यह है कि अनेक सामाजिक समस्याओं का उठ खड़ा होना ।
परिवार के अंतर्गत स्त्री के लिए आचरण की शुद्धता पर जोर दिया जाता है इसका प्रमुख कारण उसकी देह और गर्भ पर अधिकार की चेतना है । स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग विधान की विषमता भी एक विचारणीय प्रश्न है ।
पुरुष के लिए अनेक विवाह की अनुमति और स्त्री के लिए एक विवाह के विधान में विधवाओं की समाज़ में स्थिति को अत्यधिक दयनीय बना देता है ।
देश और समाज में व्याप्त अंध परंपराओं , अंधविश्वासों और अंधरूढ़ियों के कारण स्त्री का समुचित उत्थान व विकास संभव नहीं हो पाता है ।
मेरा तात्पर्य उनमें सुधार की चिप्पी लगाना मात्र नहीं बल्कि उसे जीर्ण-शीर्ण और रुग्ण बताकर त्याज्य साबित करना है ।
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