पुरुष को मनुष्य बना सकने के लिए स्त्री को ओर कितना सहन पड़ेगा ,,,,,,??

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सामंतवादी पुरुष के हमको मेरा लेखन नागवार लग सकता है ।  लेकिन मेरा आक्रोश समाज कि उस व्यवस्था के प्रति है जो अपनी छद्म नीतियों और मोह से मुक्त नहीं होना चाहता ।





 सामंतवादी नीतियों पर आधारित सत्ता के   चक्के में स्त्री हमेशा से ही पिसती आई है ।  ईश्वर संबंधी धारणा पर फैले अंधविश्वास और पुरातन रूढ़ियों से क्षुब्ध हो स्त्री भी आज मुक्त होना चाहती है ।


 इन आडम्बरों ने स्त्री जाति को बहकाकर रखा है । अपने स्वार्थ पूर्ति में अंधी स्वार्थपरता अवसरवादी चालें चलकर अपने अदम्य लालसा पूर्ति करती है ।

 यह हमारे समाज की सबसे ज्वलंत सच्चाई भी है । धार्मिक एवं सामाजिक अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों से ग्रस्त जीवन में परिवर्तन होना अनिवार्य है ।

 समाज में निरीह स्त्री का अपमान एवं तिरस्कार करने वाले जघन्य एवं कुत्सित घटनाओं का ग्राफ दिनों दिन बढ़ता जा रहा है ।  स्त्री जाति पर होने वाले पाशविक ओर अमानवीय कुकृत्यों को देख कर तो लगता है कि स्त्री मुक्ति के किसी स्वप्न को साकार करने की कल्पना निरर्थक बेमानी है ।

 पुरुषों की परस्पर अंधी घृणा मानवीय शोषण में यदि सबसे  अधिक जिसे यातना भोगनी पड़ी है वह स्त्री जाति है ।

 स्त्री होने के नाते वह हवस का शिकार  , उस भोग की वस्तु बनती रहती है जिसका सीधा संबंध पुरुष की काम वृत्ति से है ।  पुरुष की पाशविकता ओर विद्वेष की भावना ने स्त्री का हमेशा शोषण किया है ।



 आज तक असंख्य स्त्रियों ने पुरुषों की वास्तविकता को सहा है ।  सवाल यह है कि पुरुष को मनुष्य बना सकने के लिए स्त्री को और कितना सहना पड़ेगा ।




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