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स्त्री प्रश्न

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भोजपुरी में एक कहावत कही जाती है ---- त्रिया जन्म मत देबू हो विधाता " नारी चाहे वह मां के रूप में तथा सृष्टि के सृजन कर्ता के रूप में हो या बच्चों की पालनहार मां का ममत्व अथवा एक पत्नी के रूप में सृष्टि के प्रारंभ से ही स्त्री अपनी भूमिका बखूबी निभा रही है । आज की स्त्रियां शिक्षा के क्षेत्र में भी बढ़ोतरी कर रही है । लेकिन शिक्षित महिलाओं के साथ भी इस सभ्य पुरुष समाज में अपराधों की संख्या कम नहीं हो पा रही है । मैंने सभ्य पुरुष इसलिए कहा क्योंकि सारी सभ्यता का ठेका तो सिर्फ पुरुष वर्ग ने ही ले रखा है ना ,,,,!!! हम आज भी देखते हैं कि लड़कियों के साथ जो भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है । यदि संतान लड़की के रूप में जन्मी हो तो परिवार पर दुख के बादल मंडराने लगते हैं । आज आधुनिक समाज में समय का तकाजा है कि दकियानूसी बातों को त्याग कर वर्तमान में जिए आज के इस समाज को निडर शिक्षित समझदार और पहल करने वाली स्त्री की आवश्यकता है । स्त्री को भी अपने अस्तित्व को स्थिर रखने के लिए त्याग को छोड़कर स्वयं का विकसित करना होगा क्योंकि स्त्री हमेशा से ही त्याग की मूर्ति रही है

स्त्री अधिकार चाहती है .... भिक्षा नही !!

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पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति के चलते स्त्री की छवि को सीधे-सीधे प्रश्नों के घेरे में डाला गया है । रघुवीर सहाय की पुस्तक  'सीढ़ियों पर धूप '  में से यह पंक्तियां देखिए---  पढ़िए गीता बनिए सीता फिर इन सब में लगा पलीता किसी मूर्ख की हो परिणीता निज घर बसाइये होय कटीली  आंखें गीली  लकड़ी सिली ,तबीयत ढीली  घर की सबसे बड़ी पतीली भर भर भात पसाइये  ,,,?? स्त्री की छवि सत्य यही रही है कि वह सीता की तरह हो लेकिन प्रश्न यह है कि सीता की तरह होना क्या है । नारी के पीछे पीछे चलते हुए देखने की अहंकारी पुरुष प्रवृत्ति पर चोट  ---- यह --- ओह ,  भारतीय स्त्री ! तुझे मेरी करुणा की कितनी जरूरत है । यह स्त्री विमर्श स्त्री के इंसान होने की सही और सहज सत्ता की खोज और स्थापना का है ।  वर्णन अलग अलग हो सकते हैं ,,,, शैली भी अलग हो सकती है,,,, लेकिन स्त्री को उचित ही इंसान के रूप में देखना , पकड़ना और पाना है । पुरुष के द्वारा स्त्री को प्राय करुणा की वस्तु के रूप में देखने और चित्रित करने का विरोध है । स्त्री के ताकतवर रूप को भले ही प्रकट रूप में कम ही सामने आने का अवसर मिला हो

अंधेरे का सफर : टूटते रिश्ते

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मैं क्या लिखती हूं ,,,,  और मेरे लिखने से क्या फर्क पड़ता है ,,,, यह मैं कई बार सोचती हूं लेकिन मैं तब लिखती हूं जब मेरे अंदर कुछ उबलता है  । एक श्लोक है ---    नास्ति पूज्या न निधा च   जननी भूत्वा न सार्थिका वरवन्नेव प्रजा नारी आधकर्म - त्याग - भोग्यो :  अथार्त स्त्री न विशेष पूजा की पात्र है  ,  न निन्दा की ओर न वह एक मात्र माँ बनकर सार्थक होती है । बल्कि यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि वह हर कर्म , त्याग और भोग्य में बिल्कुल पुरूष की तरह ही अधिकारी है । वह भी इंसान हैं जैसे कि पुरूष । पहले नारी को शांति व सौम्या का प्रतीक माना जाता था  । उसके विद्रोही स्वरूप की कल्पना नहीं की गई थी किंतु जीवन की कटु परिस्थितियों पुरुष वर्ग का अनुचित व्यवहार तथा पूंजीवादी शोषण के कारणों से उसे विद्रोही बना दिया  । नारी के इस विद्रोह के परोक्ष में सामाजिक परिस्थितियां है उसके अंदर का स्वाभिमान पुरुष के पुरूष के खिलाफ विद्रोह कर देता है । आज मानव बंधन विहीन होकर जीना चाहता है ।  यही स्वच्छंदता धीरे धीरे स्त्री वर्ग में भी फैलती जा रही है ओर तब उत्पन्न होता है आधुनिकीकरण व पुरातन का