तू मर क्यों नहीं जाती ,,,,

तू *मर* क्यों नहीं जाती ,,,,,,






 यदि पशु बल का ही नाम बल है , तो निश्चय ही स्त्री में पुरूष की अपेक्षा कम पशुत्व है ।  लेकिन अगर बल का अर्थ नैतिक बल है तो उस बल में वह पुरुष की अपेक्षा इतनी अधिक महान है । क्यों कि जिसका कोई नाम नहीं हो सकता । यदि अहिंसा मानव जाति का धर्म है तो अब मानव जाति के भविष्य की निर्मात्री स्त्री ही मानी जानी चाहिए ।  मानव के हृदय पर स्त्री से बढ़कर प्रभाव और किसका है ,,,,, ।।  यह तो पुरुष ने स्त्री की आत्मा को कुचल रखा है यदि उसने भी पुरुष की भोग लालसा के सामने अपने आप को समर्पित ना कर दिया होता तो सोई हुई शक्ति के इस अथाह भंडार के दर्शन का अवसर संसार को मिल जाता ।  स्त्री पुरुष से अपने खोए हुए अधिकारों तथा अस्तित्व को प्राप्त कर लेगी तो वह पुरुष के समान अवसर पा लेगी  । ऋषि कवि ने कहां है कि जहां-- स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं ,,,, कविवर जयशंकर प्रसाद ने --- नारी तुम केवल श्रद्धा हो --- कहकर उसे देव तुल्य पात्र माना है । किंतु स्त्री की दयनीय दशा का चित्र स्वयं राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने  ---आंखों में पानी भरे ---- अबला की कहानी कह कर खींचा है । सत्य है की देवी को हमारे समाज ने क्या दिया है,,,  स्त्री एक माता ,  बहन  , पुत्री आदि अनेक रूपों में अपने दायित्वों का वाहन करती है । वह त्यागमयी , ममतामयी तथा समर्पित होती है  ---वह अपने परिवार के लिए हरसंभव प्रसन्नता प्रदान करने वाले प्रयास करती है । किंतु समाज फिर भी उस पर अंकुश लगाता है  । उसके विभिन्न कार्यों तथा अधिकारों पर तो रोक लगाता ही है बल्कि उसका शोषण भी करता है ।  यह समाज स्त्री को आज तक कुछ दे ही नहीं सका है ।


आधुनिक भारतीय शिक्षित स्त्री को अच्छी गृहणि के रूप में न देख पाना पुरुषों की एकांगी
दृष्टि का परिणाम है ।उसकी रुचि और भावनाओं की उपेक्षा की जाती है ।  रुचि से मेरा तात्पर्य सद्व्यवहारअथवा सद कार्य से है --- ना कि स्त्री का ससुराल वालों के प्रति संयत व्यवहार या कार्यकलापों से  ।

पुरुष यदि अपने सुख के साथ पत्नी के सुख-दुख का भी ध्यान रखें तो वह निस्संदेह अच्छी ग्रहणी सिद्ध हो सकती है ।  पुरुष यदि स्त्री की इच्छाओं का दम घोंटने लगे और उसकी शक्ति को  क्षीण करने लगे तो मनुष्य प्रकृति के अनुरूप स्त्री भी विद्रोह कर बैठती है ।

मैंने जो कुछ भी जीवन में अध्ययनरत अथवा अनुभव से  सीखा है वह यह कि महत्व किसी कार्य की विशालता में नहीं उस कार्य को करने की भावना में है ।  सत्य के साथ प्रयोग करते हुए मैंने सुख का अनुभव किया है  ।




 स्त्री शिक्षा वर्तमान युग में भी उसके लिए इतनी फलित नहीं हुई है । जितनी कि पुरुष की अल्प शिक्षा को ही मान लिया जाता है और स्त्री चाहे कितनी भी शिक्षित हो उसे समाज के द्वारा बनाए गए  निर्धारित मापदंडों के अनुरूप ही जीवन जीना पड़ता है ।
 पुरुष समाज ने इस आतंक और अपनी अहमियत कायम रखने के लिए एक ऊंची झाड़ की बाढ़ उगा रखे  है ।  पुरुष ने मात्र अपने अहम की प्रतिष्ठा को बचाये रखना चाहते है --- येन केन प्रकारेण ।
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में  ---"  नारी जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी , आँचल में है दूध और आँखों में पानी " ।   कह कर गुप्तजी ने समाज को नारी व्यथा का एक संकेत दिया था । उसके उपरांत भारतीय स्त्री ने ओजपूर्ण प्रगति की।  समाज और राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में और आर्थिक निकायों में स्त्री ने अपनी कुशलता और बौद्धिक क्षमताओं का परिचय भी दिया है ।  स्त्री पुरुष की राग आत्मक वृत्ति की अधिष्ठाता है । वह अपनी सरलता  , मृदुलता ,  सहिष्णुता से सृष्टि का संचालन कर रही है ।  स्त्री तो ईश्वर की श्रेष्ठतम कृति है ।  वह पूजा है और जहां उसकी पूजा होती है ,,, वहां देवता निवास करते हैं इसीलिए प्रसाद जी ने भी कहा है --- नारी तुम केवल श्रद्धा हो ।।



 ओर --- मैं जानती हूं कि अभी मुझे बीहड़ रास्तों को तय करना है इसके लिए मुझे शून्यवत बनना पड़ेगा ।

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