स्त्री की आज़ादी -- उसके *पर्स * में ही है ,,,,

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एक ही अंतहीन क्षितिज कक्ष में में जी रही हूं  --- और वह क्षण जरा भी नहीं बदलता टस से मस नहीं होता ।  मैं मानो एक काल निरपेक्ष क्षण में टंगी हुई हूं --- वह क्षण काल की लड़ी में से टूट कर कहीं छिटक गया है और इस तरह अंतहीन हो गया है ---- अंतहीन और अर्थहीन ।


 
         *अपने - अपने अजनबी*




किताबों की दुनिया एक अलग दुनिया होती है जो हमें स्वतंत्र और स्वायत्त बनाती है । मेरा मानना है कि हमारे सभी सवालों का जवाब हमें यही मिल सकता है इस किताबी दुनिया के बीच ।







स्त्री प्रश्न या स्त्री मुक्ति प्रश्न बहुत बड़ा है । इसे मनुष्यता को अवश्य ही सुलझाना होगा । स्त्रियों को बड़े से बड़े दुख सहने की आदि काल से ही आदत है ।

यही कारण है कि किसी अपवाद को यदि छोड़ दिया जाए तो स्त्रियों में हृदयाघात से मौत नहीं होती क्योंकि वह जीवन भर ही तो आघात सहन करती रहती है और दूसरों को सदा सुख देती रहती है । ऐसे में उनका ह्रदय जो प्रकृति से कोमल होते हुए भी इतना अत्यधिक कठोर हो चुका होता है कि वह बड़े से बड़े आघात को सहने में स्वत ही सक्षम हो जाता है ।


 पहले पहल तो स्त्री के गृहस्थी में उसके श्रम को नकारा जाता था और अब वर्तमान में स्थिति यह है कि अब उसके आर्थिक अवदान को भी लगाने की परंपरा बन चुकी है ।


 वर्तमान समय में पढ़ी-लिखी स्त्री यदि घर बैठकर महज पति की या परिवार की पूजा सेवा में अपना जीवन नहीं लगा सकती है  । ना ही अच्छे पति की तलाश में व्रत उपवास और मंदिरों के चक्कर लगा सकती है । पति व परिवार के साथ-साथ उसे अपना अस्तित्व भी कायम रखना है ।  उसे भी आसमान की ऊंचाइयों को छूना है जिनकी वह हकदार है ।

घर के बाहर भी स्त्री ने पुरुष के बराबर काम किया है और घर पहुंचते ही वह फिर काम में लग जाती है  । परंतु स्त्री के द्वारा किए जाने वाले कार्य का कभी मूल्यांकन नहीं हुआ है ना तो घर ना बाहर का कोई कार्य ।


रात दिन घर की चक्की में कोल्हू के बैल की भांति पिसती हुई स्त्री के हर कार्य को तुच्छ समझा गया ---"" सारा दिन घर में पड़ी रहती हो ! " --- "सब कुछ तो तुमको मिल ही जाता है  !" --- "तुम करती क्या हो ?"   पुरुष के आधे 8 घंटे की ड्यूटी के आगे स्त्री की 24 घंटो वाली ड्यूटी को तुच्छ समझा जाता है  । लेकिन जब स्त्री ने अपनी शक्ति और क्षमता को पहचानकर पुरुष के 8 घंटे की दुनिया में कदम रखा तो पुरुष समाज के भी पेट में दर्द होने
लगा ।

परिवार को या बच्चों को जब स्त्री की या मां की आवश्यकता होती है तो स्त्री भी स्वयं के अस्तित्व को भुलाकर पूर्ण रूप से समर्पित हो जाती है । परंतु जब उनको इसकी जरूरत नहीं रहती तो उसके उसको पीछे धकेल दिया जाता है और तब वह पूर्ण रूप से नितांत अकेली रह जाती है । तब फिर से वह अपने वजूद को ,,, उस खोए हुए अस्तित्व को टटोलती है  । लेकिन तब तक समय बीत चुका होता है ।


स्त्री को हर तरह के शोषण के साथ साथ मानसिक तनाव को झेलना पड़ा है । कोई भी ढाँचा हो चाहे वो सामाजिक या आर्थिक  स्त्री को ना सिर्फ किनारे धकेला गया बल्कि उसकी क्षमताओं को भी निम्नतम स्तर पर रखा गया
 है ।

प्रभा खेतान कहती है कि ---"औरत के लिए केवल प्यार ही काफी नहीं व्यक्ति बनने के लिए उसे और भी बहुत कुछ चाहिए । मान-सम्मान , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता   ।  सभी कुछ जीवन शुरू करने उसे भी पुरुष के बराबर की जमीन चाहिए और इस जमीन को समाज से छीन कर लेना पड़ता है महज अनुनय विनय से काम नहीं चलता ।

 प्रभा खेतान इस बात को स्वीकार करते हुए कहती हैं कि स्त्री की आजादी स्त्री के पर्स से ही शुरू होती है ।


स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय समाज में तीव्र गति से परिवर्तन हुए हैं । परिवर्तन के इस युग में पारस्परिक मूल्यों के प्रति मोह एवं नवीन मूल्यों के प्रति सहज स्वाभाविक आकर्षण एक साथ बना हुआ है । समाज द्वारा स्वीकृत पति-पत्नी संबंधों के परंपरागत स्वरूप में भी स्वावलंबन की भावना एवं स्त्री शिक्षा के परिवर्तन उपस्थित कर दिए हैं  । परिणाम स्वरूप स्त्री परिवार तथा समाज के प्रति अपने दायित्व को कदम से कदम मिलाकर आत्मनिर्भर होकर स्वयं का मार्ग निर्धारित कर रही है । यही संघर्ष उसकी चेतना का उद्घोषक भी बन चुका है । आज की स्त्री चाहे वह अनमेल विवाह हो या असफल प्रेम की व्यथा उससे वह न तो स्वयं को कुंठित करती है और ना ही स्वयं को भटकने देती है । इस विषयों में सभी मान्यताओं को वह बदल रही है ।

आज की स्त्री पुरुष परिचालित सामाजिक मान्यताओं को ज्यों का त्यों मानने के लिए तैयार नहीं है । वह उसके अनैतिक अत्याचारों को सहन नहीं करेगी 'भगवती चरण वर्मा ' के  'भूले बिसरे चित्र ' की  'विद्या' बुद्धिवादिनी स्त्री है ।  इसलिए वह पति के अत्याचारों और दुविधा ग्रस्त जीवन को जिकर सहते रहने से तो संबंध विच्छेद कर लेना बेहतर समझती है  ।  ' अंधेरे बंद कमरे ' की ' नीलिमा ' भी पति की भूख का  सामान बनकर नहीं रहना चाहती और पुरुष के समान उसमें भी स्वतंत्र स्त्री के भाव है ।


स्त्री के आत्म सम्मान और स्वावलंबी व्यक्तित्व ने सामाजिक धरातल पर नैतिकता के नए प्रतिमान स्थापित किए हैं । वह संपूर्ण रूप से सामाजिक कुरीतियों तथा व्यवस्था पर कटाक्ष भी कर रही है ।

मानसिक एवं पारिवारिक दबावों के चलते  शिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्री आज भी पुरुष समाज की दासता से मुक्त नहीं हो पा रही है । पुरुष ने अपनी पार्श्विक तृप्ति के लिए स्त्री को खिलौना मात्र समझा है । लेकिन आखिर कब तक स्त्री एवं पुरुष के हाथों की कठपुतली बनी रहेगी  ?? उसको स्वयं के हक के लिए अपनी लड़ाई लड़नी ही होगी ।


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