: स्त्री :

   
         
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                                                                            तत्सृष्टसृष्ट सृष्टेशु कोनवखइतधीपुमान ।
ऋषि नारायणमते योशिनमय्येया मायया ।।
बलं मेपश्य मायाया : स्त्रिमयया जयिनोदिशाम ।
या करोति पदक्रन भुविज्ञभ्रंन केवलम ।।

              भागवत -- 3/31/37-38



भागवत में अनेक रूपों में स्त्री को माया रूपा कहा गया है ।जिससे ऋषि नारायण के अतिरिक्त सभी पुरूषों की बुद्धि मोहित रहती हैं । इतना ही नहीं वह निज भ्रुविलास मात्र से बड़े बड़े दिग्विजय वीरो को पैरों से कुचल दिया करती है ।
अथार्त देवमाया रूपिणी स्त्री के बाहुपाश में आबद्ध होकर जीव विवेकहीन हो जाता है ओर अधोगति को प्राप्त करता है ।
इस प्रकार भगवतकार के अनुसार स्त्री देवताओं की वह माया है जिससे जीव मोक्ष प्राप्ति या भगवत्प्राप्ति से वंचित रह जाता
 है ।

एक बात तो स्पष्ट है कि स्त्रियों को पति सेवा में रत कराने के लिए अनादिकाल से बड़े बड़े एवं सम्मानीय कवियों द्वारा साहित्य और जीवन में पातिव्रत का पाठ जरूर पढ़ाया ओर सिखाया जाता रहा है ।

 " विशील : कामव्रतत वा गुणैवा परिवर्जित :  ।
उपचर्य : स्त्रिया साध्वया सततं देववतपति : ।।
अर्थ यह कि यदि पति अनाचारी हो या पर स्त्री पर अनुरक्त हो , या विद्यादिक गुणों से रिक्त हो , तो भी साध्वी स्त्री को सर्वदा देवताओ की तरह अपने पति की  सेवा करनी चाहिए ।
                                         
मनु स्मृति --- पंचम अध्याय
                पृष्ठ --- 192





 " नास्ति  स्त्रीणाम प्रथग्यओ न व्रतं नाप्यूपोषनम ।
पतिं शुश्रुष्ते येन तेन स्वर्गे महीयते । "

अथार्त स्त्रियों के लिए न अलग से यज्ञ है , न व्रत , और न उपवास है । पति की सेवा से ही वह स्वर्ग लोक में पूजित होती है । 

    मनु स्मृति -- ( वही )

भगवतकार तुलसीदास जी भीJ स्त्री को भगवान विष्णु की मुर्तिमती माया मानते है । जिनको देख कर ज्ञानिधान मुनि भी विवश हो उठते हैं ।

स्त्री की समस्याओं से भलीभांति परिचित एवं सवेदनशील कवि तुलसीदास जी ने भी स्त्री को स्वर्ग - नर्क की सीमाओं में आबद्ध कर दिया । स्त्री को इन बेड़ियों से मुक्त कराने की कोशिश नहीं की ओर न ही एक स्वतंत्र फैसले लेने वाली स्त्री का रूप सामने रख पाए ।
तुलसीदास जी लिखते हैं ---  " व्रद्ध रोग सब जड़ धन हीना / अंध बधिर क्रोधी अति दीना  / ऐसे हु पति कर किए अपमाना / नारि पार जमपुर दुख नाना ।"
अथार्त व्रद्ध , रोगी , मूर्ख , निर्धन , अंधा , बहरा , क्रोधी एवं अतिदीन पति का अपमान करने पर स्त्री अपने लिए नर्क का मार्ग प्रशस्त करती है । जहाँ उसे अगणित दुख झेलना पड़ सकते हैं ।


जिस भोग वादी दृष्टिकोण से तुलसीदास जी ने स्त्रियों को समझा है।  वह स्त्री के मूल्यांकन का सही दृष्टिकोण नहीं है । स्त्री की बुद्धि ,,  उसका विवेक ,,, उसकी अस्मिता को ताक में रखकर केवल भोग वादी दृष्टिकोण का सहारा लेकर स्त्रियों का मूल्यांकन हुआ जो गलत है ।  जहां पतिव्रता रूप शोषिता का जिसका प्रमुख कर्म एवं धर्म पति की नित्य सेवा मात्र है ।

इतना ही नहीं तुलसीदास जी लिखते हैं --- " ढोल , गंवार , शुद्र , पशु नारी / सकल ताड़ना के अधिकारी ।
वही तुलसीदास जी की विरोधभास प्रवर्ति भी दिखाई देती है जब वे लिखते हैं --- " केहि विधि नारी रचि जग माहि ,पराधीन सपनेहुँ सुख नाहि । "
ऐसा कदापि नहीं है कि तुलसीदास जी स्त्रियों की समस्याओं से अनभिज्ञ थे लेकिन फिर भी कहीं न कहीं वो पुंसवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए ,, जिसका प्रमाण ये पंक्तियां है ।

 स्त्री की इच्छाएं आकांक्षाएं पुरुषों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है स्त्री की इच्छा का प्रमुखता ना देने के कारण ही पति से प्रेम करना स्त्री का मूलभूत कर्तव्य माना गया है उसके लिए निश्चित कर दिया गया कि पति के अतिरिक्त किसी और से प्रेम या संपर्क करने वाली स्त्रियों को चरित्रहीन की संज्ञा दी गई और इस तरह की मनोदशा समाज में आज भी बरकरार है ।


दूसरी ओर स्त्रियों के लिए अत्यंत दुख की बात यह भी रही कि कबीर जैसे  साम्प्रदायिकता विरोधी , पाखंड विरोधी एवं प्रगतिशील चेतना से संपन्न कवि ने भी स्त्री का मूल्यांकन पूर्णतः पुंसवादी दृष्टिकोण से किया ।
कबीर जी की माने तो ये जो कामिनी स्त्रियां है वे भुवन मोहिनिया है ,,, जो मीठी वाणी बोलने वाली होती हैं ,,, ओर माया मोह के जाल में पुरूषों को फसा लेने वाली होती है । कबीर ने माया का जो रूप वर्णित किया है और उसकी स्त्री से जिस तरह की  तुलना की है उससे यही स्पष्ट होता है ---- " माया महाठगिनि  हम जानि / निरगुन फ़ांस लिए कर डोले  ;  बोले मधुर वाणी " ।

कबीर दास जी कहते है ----  "कबीर नारी की प्रीति से , केटे गये गरन्त
केटे ओर जाहिंगे , हसन्त हसन्त । "


कबीरदास जी का आशय यह है कि नारी से प्रेम के कारण अनेक लोग बर्बाद हो गए और अभी बहुत सारे लोग हँसते हँसते नरक जाएंगे ।

इतना ही नहीं भक्त कवि कहते है कि --- कलि महम कनक् कामिनी, ये दो बार फाँद
इनते जो न बंधा बहि , तिनका हूँ मैं बन्द । "

अथार्त कलियुग में जो धन और स्त्री के मोह में नही फंसा है भगवान उसके ह्रदय से  बधे  हुए है  क्योंकि ये दोनों माया मोह के बड़े फंदे है ।




 पुरुषों ने तो स्त्रियों पर अपनी राय देने को ही अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया है । पुरुषों का स्वर्ग प्रवेश पहले से ही निर्धारित है चाहे वह हजार बुरा कर्म करें ।


पुरुष समाज ने आज तक स्त्रियों के कई प्रकार से चरित्र  चित्रण किये । उनको  कामिनी भी घोषित कर दिया । कामिनी शब्द के पीछे स्त्री शरीर का संकेत है कामिनी से दूर रहने का अर्थ स्त्री के शरीर से परहेज़ करना है ।स्त्री की अस्मिता स्त्री के शरीर से ही निर्मित होती है ।


स्त्रियां ,,,,,, चाहे वह भक्त कवियों के शब्दों में कामिनी हो या फिर पतिव्रता ,,,,,,  पुरुषों को फ़साने के लिए जन्म नहीं लेती है बल्कि स्वयं की जिंदगी जीने के लिए लेती है ।

ये तो सरासर गलत है न पुरुष ,,,, आकर्षित आप  हो ओर दोष स्त्रियों के सर मढ दिया जाए ,,,,, मोह माया के जाल से आप स्वयं ही मुक्त हो नहीं पाते और मोहिनी ,, कामिनी का टैग स्त्री के माथे पर लगा दिया ।  आप तो स्वयं ईश्वर की उपासना करने वाले उत्तम कोटि के भक्त हैं तो आप यह स्वर्ग नर्क वाला फैसला भी ईश्वर पर ही क्यों नहीं छोड़ देते ।

स्त्री  पर अच्छी और बुरी का लेबल लगाने और अच्छा या बुरा साबित करने का निर्णय करने में सदा से ही पुरुष समाज बढ़-चढ़कर भाग लेता आया है ।


 सोचिए जरा  ,,,,, लंपट ,  दुष्ट चरित्र और चरित्रहीन पुरुषों की क्या गति होगी ।  उन्हें नरक में स्थान मिलेगा या नहीं स्वर्ग में ।  इसका जिक्र तो इन महान कवियों ने कभी किया ही नहीं इसका जिक्र पूरे पूरे भक्ति साहित्य से नदारद है । पुरुषों के मामले में कंसेशन का विधान है क्या ,,, ???या फिर भूल गए क्या ,,,???
 कि जिन दोषों का आपने स्त्रियों के मामले में जिक्र किया है वह पुरुषों के मामले में भी फिट हो सकता है ।
 आप पुरुष व्यर्थ की चिंता न करे ,,, ओर न ही स्त्रियों को डिफाइन करने के लिए शब्द ढूढने की निरथर्क कोशिश करें । आज की स्त्रियां स्वयं डिसाइड करेंगी की वो क्या है ,,, !!  उनका अस्तित्व क्या है ,,,!!

अब पुरुषों द्वारा थोपे गये अपशब्द ओर फैसले स्वीकार्य नहीं । आप भी अपना मूल्यवान समय स्त्रियों को अपमानित करने में खर्च न करें क्योंकि आज की स्त्री सामंती समाज की कड़ियों से मुक्ति का मार्ग खोज रही है और न सिर्फ मुक्त हो रही है बल्कि समाज के सामने अपना अस्तित्व भी दर्ज कर रही है । अपनी अस्मिता का नवनिर्माण कर रही है ।



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Comments

  1. बहुत अच्छा लिखा है । मैं यही कहूंगा की पुरातन मे जो सोच राहि हो, लेकिन आज के दौर मे महिलाओं को पुरा सम्मान देने की कोशिश की जा राहि है। आशा करता हुं आने वाले समय में सभी महिलाओं को पुरुषों के बराबर सम्मान और इज्ज़त आदर सत्कार मिले।
    जिस तरह एक हाथ से ताली नहीं बजती उसी तरह पुरुष बिना स्त्री और स्त्री बिना पुरुष अधुरा हे, तो सभी को सम्मान देना चाहिए।
    महिलाओं का सम्मान सर्वोच्च धरृम है।

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