* माँ *

         
           
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पूजा उपासना हमें अंतर्मुखी बनाती है यह हमें आंतरिक शक्ति प्रदान करती है।  खंड खंड बटे हमारे चरित्र को अखंडता प्रदान करती है । आराधना करने की शक्ति ,, अंतमुर्खी होने की क्षमता केवल मनुष्य में है ,, पशु में नहीं  ।


मातृ उपासना सभी उपासना में श्रेष्ठतम है और अमोघ फल प्रदान करने वाली है । ईश्वर की भक्ति से जहां केवल ज्ञान और वैराग्य मिलता है वहां माता की उपासना से लोक परलोक दोनों प्राप्त होते हैं  ।

राजा निर्दयी हो सकता है ,,  मित्र धोखा दे सकता है ,,, प्रियतम मुँह मोड सकता है ,,, पिता त्याग कर सकता है ,,,,  परंतु माता अपनी संतान के प्रति निष्ठुर नहीं हो सकती ।। मातृ उपासना में करना धरना कुछ नहीं पड़ता केवल उसके आश्रय में बैठ जाना भर होता है  ।

सभी शास्त्र वेद और ज्ञान के अंग उपांग सृष्टि की रचना पर अपने-अपने ढंग से विचार करते हैं और सृष्टि के प्रथम शब्द की चर्चा में अपने-अपने मत भी प्रकट करते हैं  ।  संतों की अवधारणा है कि पहला शब्द मां का ही संतान के मुख से उच्चारित होता है । ध्यान से सुने तो गाय का बछड़ा भी यही शब्द सर्वप्रथम उच्चारता है । कष्ट में , पीड़ा में , सुख आह्लाद के अतिरेक में यही शब्द मुंह से निकल जाता है ।


यह शब्द ह्रदय के तारों से जुड़ा है और हृदय को झंकृत कर जाता है ।  इस सारी सृष्टि का प्रसार मातृशक्ति का ही है । एक बात और आप देखें हमारे अंदर जो काम  , क्रोध  , लोभ आदि विकार है वह हजार उपाय करने से भी नहीं शांत होते पर मां के सामने जाते ही यह सभी विकार शांत हो जाते हैं । अतः जब मां का स्मरण होता है तो यह समझे कि ईश्वर का ही स्मरण होता है ।  जब कहीं शांति ना मिले मन के वेग चैन ना लेने दे तो मां के सामने जाना चाहिए । उनके चरण स्पर्श करना चाहिए उनकी ओर टकटकी लगाकर देखना चाहिए । मां के सामने अंधेरा भागता नहीं वह प्रकाश में बदल जाता है ।

 अतः मनुष्य उनके दर्शन से दिव्य और पुनीत हो उठता है।  जो मां के चरणों में बैठते हैं वही इस भेद को जानते हैं  । यही तो इसकी खरी कसौटी भी है जो भी मां के समक्ष बैठेगा उनका प्रकाश अपने अंदर ले लेगा उसके भीतर का अंधकार अवश्य ही प्रकाश में परिणत हो जाएगा । जो मां की उपस्थिति का आभास लेते रहेंगे वह अवश्य ही प्रकाशित होते चले जाएंगे  । उनके चरणों को अपने अंदर बसाने की क्रिया उस समय किसी जाप की जरूरत नहीं ,,,  मंत्र की आवश्यकता नहीं ,,, वह मंत्र तो काम कर गया जब हम मां के समक्ष आकर बैठ गये ।

बस उनके आलोक को अपने भीतर मात्र भरना है  । उस जगत जननी का अंश ही अलौकिक माताओं में आया है । बालक बनके उसे पुकारना है । प्रेम भरी दृष्टि से उसकी ओर निहारना है ।  उसको बुलाने के लिए रोना और भी लिखना है । माता की उपासना लोक परलोक दोनों बनाती है ।  इसलिए वह ईश्वर की उपासना से भी बढ़कर होती है ।  संतों का कहना है कि प्रथम शब्द मां है --  क्योंकि बालक के मुख से पहला शब्द  माँ ही निकलता है ।  मां शब्द तो ह्रदयों को जोड़ने वाला है  । समस्त सृष्टि मातृशक्ति का ही प्रचार है । मां के सामने जाते ही मन के समस्त विकार शांत हो जाते हैं और हृदय में प्रकाश भर जाता है । मां के सामने जाना जीव और ईश्वर का आमने सामने होने के समान है ।  समस्त जंत्र मंत्र का फल यह है कि हम मां के सामने जाकर बैठ जाएं अतः मनुष्य को चाहिए कि मां के चरणों को अपने हृदय में बसा ले क्योंकि मां में ही जगत जननी का अंश रहता है ।

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