स्त्री

हिंदी साहित्य में ‘स्त्री विमर्श’

पहली बात तो किसी भी भाषा का कोई भी बड़ा विमर्श दो-चार लेखकों के दम पर लम्बे समय तक नहीं चलता है और दूसरी बात कि वह किसी एक ही धारा में विकसित नहीं होता है| यदि किसी साहित्यिक विमर्श का मूल्यांकन दो-चार लेखकों को आधार बना कर किया जाये और निष्कर्ष भी दे दिया जाये तो यह साहित्य के साथ ही साथ उस विमर्श के भी बड़े परिप्रेक्ष्य की उपेक्षा है| हिंदी साहित्य में भी स्त्री विमर्श कई धाराओं में विकसित हुआ और उसका मूल कारण लेखिकाओं का अपना अनुभव जगत और अपनी अलग-अलग सामाजिक स्थिति है| जिस ‘मर्दवाद’ के खिलाफ स्त्री विमर्श खड़ा हुआ है उसकी प्रतिक्रिया में ‘स्त्रीवाद’ का वह रूप भी आता है जहाँ वह मर्दवादी अवधारणा पर ही खड़ा दिखाई देता है लेकिन ऐसी प्रतिक्रिया पश्चिम के स्त्री विमर्श का भी हिस्सा रही है| ऐसी प्रतिक्रियावादी धारा किसी भी विमर्श को दिग्भ्रमित कर सकती है खासतौर पर उसके सामाजिक उत्तरदायित्वों की दिशा को, इसलिए इस मुद्दे पर खुल कर बहस और आलोचना होनी चाहिए लेकिन इसे मूल्यांकन की कसौटी नहीं मान लेनी चाहिए|

Comments

Popular posts from this blog

एक कदम --- *मैं * की ओर

स्त्री पुरूष की संपत्ति नहीं

स्त्री विमर्श