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Showing posts from August, 2018

"पीड़ा"

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******** " मेरी पीड़ा ने मुझे सौ बार रुलाया है ,,,, लेकिन सच भी है इनको मैंने ही तो बुलाया है ,,,, वास्तविक रूप तो यही है कि सच्चाई पर सुंदर सा कफ़न डाल कर उस पर शाल चढ़ा देते है । कोन समझता है किसी की पीड़ा को,,, दूसरे के दर्द को ,,,, ।।  "इतना आसा नही  है इस दौर में मिलना जुलना ,,,      सोचना पड़ता है कैसी लगु कैसी ना लगु  ,,,,,"  मनुष्य को हमेशा सामाजिक होने की सलाह दी जाती है क्योंकि वह कभी मुसीबतों में फंसता है तो लोगों के तथा परिवार जनों के सांत्वना भरे शब्द उसे हताश होने और निराशा के गर्त में जाने से रोक सके ।  सौ बात की एक बात यदि परिवार जन हाल-चाल जानने तक के लिए अगर बातचीत नहीं करते तो परस्पर प्यार कम हो जाता है तथा हीन भावना बढ़ जाती है ।  वर्तमान समय में परिवार इतने सीमित हो गए हैं कि हर एक सिर्फ अपने भले की फिक्र में लगा हुआ है दूसरे की भलाई की कोई चिंता नहीं ।  आज के समय बहुत कम ऐसा होता है कि लोग एक दूसरे से मिलकर बातचीत करते हो ।  वर्तमान समय में परिस्थितियां इतनी बदल गई है कि आज बहुत कम ऐसा होता है कि एक दूसरे से मिल कर

सम्मान / रूपया

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                     *** अंग्रेजी में एक शब्द "आनार्की " है ।  जिसका अर्थ प्प्रायः गड़बड़ के अर्थ में लिया जाता है परंतु मूल शब्द ग्रीक भाषा का है और इसका अर्थ बगावत नहीं बल्कि बंधन न होना है ।  अर्थ  ( धन ) को महत्व देने वाले रिश्ते ज्यादा समय तक फलीभूत नहीं हो पाते  ।   हां कुछ समय तक दबाव बनाकर उन को घसीटा जरूर जा सकता है लेकिन वह संवेदनहीन होकर मृतप्राय हो जाते हैं ।  वर्तमान समय में परिवार में रिश्ते पैसे का खेल बन गए हैं यहां पर पैसे के बल पर ही अधिकार व अवसरों की प्राप्ति होती है और अवसर और साधन   बिना धन के प्राप्य नही  ।  सुधार का यह अर्थ होता है कि वर्तमान समय की समस्याओं का अंत कर नई व्यवस्था को लागू करना ना कि अपने शोषण के अधिकार को तिल भर भी नहीं छोड़ना या  नई समस्या को उत्पन्न कर देना यह सुधार नहीं ।  यदि परिवार में किसी सदस्य पर कोई संकट आ जाता है तो सभी मिलकर उसका कोई न कोई हल खोज लेते हैं ।  लेकिन वास्तविक स्थिति विपरीत है आर्थिक दृष्टिकोण अपनाकर उनके संस्कार ही बदल जाते हैं ।  हिंसा - अहिंसा ,  न्याय  - अन्याय का आधार ही बदल जाता है ।  पर

स्त्री : जीवन शक्ति का आधार

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----------------------- माखनलाल चतुर्वेदी ने मुख्यतः क्रांतिकारी और गांधीवादी कवि होते हुए भी धार्मिक अंधविश्वासों एवं पुरानी मान्यताओं पर कठोर प्रहार किया है ----      " हम हैं नहीं रूढ़ि की पुस्तक के पथरी ले भार       नित नवीनता के हम हैं जग के मौलिक उपहार ।"  जीवन और अनुभूति के साथ-साथ आवश्यक है स्वयं के अस्तित्व में व्यक्तिगत स्वतंत्रता व्यक्तिगत निर्णय की महत्ता हो जिसमें जीवन रहने की क्षमता हो ।   वर्तमान युग में स्त्रियों को पुरुषों के समान ही सामाजिक व राजनीतिक अधिकार मिलने लगे हैं परंतु स्त्री की   पराश्रयता  जारी है ।  स्त्री को भले ही पुरुष का दास ना कह कर उसका साथी ' कहा जाता है लेकिन साथ ही उसे उपदेश भी दिया गया है कि उसे पुरुष के आश्रय में ही रहना चाहिए ।  समाज में जीवन निर्वाह का ऐसा ढंग बना दिया गया कि स्त्री व्यक्ति की संपत्ति और मिल्कियत ही रहेगी वह पुरुष के अधीन रहकर उसका वंश चलाने व उसके उपयोग  , भोग की वस्तु ही बनी रहेगी ।  कहीं  - कही तो सदाचार धार्मिक सामाजिक नियमों ने स्त्री को निर्बल बनाकर वह दयनीय बताकर दया दिखाने का व्यवहार भी क

** मानवी **

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---------- **** ---------              " स्त्री नही आज मानवी बन गई तुम निश्चित । "           (   चिदम्बरा ,  सुमित्रानंदन पंत   ) आवश्यकता है उन सामाजिक धार्मिक रूढ़िवादी परंपराओं और उन्हें प्रश्रय देने वालों के चेहरों से मुखोटे उतारना ।  जो स्त्री के वजूद ,  उसकी अस्मिता ,  उसके सामाजिक हैसियत ,,,, पुरुष वर्चस्व और पुरुष मानसिकता के चलते देह से लेकर हर स्तर तक शोषण किया करते हैं ।  स्त्री प्रश्न को यदि ऐतिहासिक क्रम में देखा जाए तो पाएंगे कि वर्ण व्यवस्था ने स्त्री को अधिकार विहीन बनाया  ,,, जाति व्यवस्था ने पंगु बनाया ,,, और पूंजीवादी व्यवस्था ने उसे माल बना दिया  ।  आधुनिक नारी अपने जीवन का लक्ष्य और महत्वाकांक्षा केवल पति सेवा और अधिक से अधिक संतानों की माता बनना,,, नहीं मान सकती वह आत्मनिर्भरता स्वतंत्रता और अपने व्यक्तित्व की सार्थकता भी चाहती है  ।  पुरुषवादी समाज का यह सवाल कि  " स्त्री स्वतंत्र होकर क्या करेगी ,,,, ??  "  लेकिन यदि पुरुष वैचारिक या व्यवहारिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्री की मानसिक सामाजिक स्थिति का स्वयं आंकलन करें तो वह स्त्