आधुनिक स्त्री
पुरुष ने स्त्री को एक ऐसे ढांचे में डाल रखा है,,, जो सिर्फ उसके स्वभाव अनुसार कार्य कर सकें। वह मात्र कठपुतली बनकर परंपराओं मिथ्या धारणाओं और मान्यताओं का निर्वहन करती रहे। उसे यही सिखाया जाता है कि जो उसे मिलता है या मिलेगा उसी में संतोष कर लेना होगा । स्त्री ने प्रत्येक रूप में अपने कर्तव्यों को बड़ी ही खूबसूरती के साथ निभाया है और जीवन पर्यंत परिवार की सेवा में जुटी रहती है। यहां तक की वह यह भी भूल जाती है की उसकी भी कोई इच्छा है अथवा उसका भी अपना कोई वजूद है । यह आवश्यक नहीं कि कम शिक्षित होने के कारण स्त्री को कष्ट सहना पड़ रहा हो बल्कि यदि स्त्री ज्यादा पढ़ी-लिखी हो तो उसे भी अनेक कष्टों को सहन करने के सिवा कोई चारा नहीं बचता और यदि स्त्री किसी असहनीय कष्ट का विरोध भी कर दे तो मायके की मान मर्यादा को क्षति पहुंचाई जाती है । कहीं-कहीं तो समाज में स्त्री को एक सैंडविच या कुशन के समान समझा जाता है जो समय पर पति बच्चों या परिवार के काम आ सके । अधिकांशत है विवाह के पश्चात स्त्री का निजी अस्तित्व तो लगभग समाप्त ही हो जाता है वह सिर्फ पत्नी होने मां होने तक ही सिमट कर