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Showing posts from August, 2019

नैतिकता

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शिक्षा एवं सामाजिक जागरूकता की भावना ने छुआछूत जातिगत भेदभाव का समाज में खुलकर विरोध किया है ।  विज्ञान एवं यांत्रिकता का प्रसार ने तथा  भौतिकवाद ने स्त्री-पुरुष संबंधों में बदलाव एवं तनाव भी उपस्थित कर दिए हैं । इन तनाव समस्याओं को खत्म करने तथा इनको भरने के लिए नवीन मानवीय मूल्यों की खोज की जा रही है ।  इस खोज में परंपरागत आदर्शों एवं नैतिक मान्यताओं का विरोध होना स्वभाविक है ।   नवीन मानवीय संबंधों की खोज को और आधुनिक युग में व्यक्ति को प्रेरित किया है । इसके अतिरिक्त नए मूल्यों की स्थापना के प्रयास में प्राचीन संबंध भी विघटित होने लगे हैं ।  यांत्रिक सुविधाओं ने नैतिक मान्यताओं में परिवर्तन उपस्थित कर दिए हैं । संबंधों में स्वच्छंदता भी आने लगी है । इसी उन्मुक्त और स्वच्छंदता का परिचय देती हुई दादा कॉमरेड की शेल कहती है --- "क्या संसार भर की अच्छाई एक ही व्यक्ति में समा सकती है । "  प्राचीन परंपराएं मान्यताएं एवं आदर्शों का विरोध हो रहा है।  किंतु स्वस्थ नए मूल्यों का भी अभाव है । यह  विरोधी जीवन मूल्यों का निर्माण कर रहा है ।  स्वयं को आधुनिक कहलाने की आकांक्षा

** तुलसी के राम **

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               **तुलसी के राम** तुलसीदास के राम उस जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं ।  जो अपने आत्म बल के बूते पर आंतरिक स्थितियों से सामंजस्य बैठाती हुई अन्याय और असत्य के संघर्ष को न्याय और सत्य से झेलती है ।  इनका एक ही लक्ष्य है - सत्य और एक ही अस्त्र है - विवेक ।  तुलसीदास के राम केवल अन्याय के प्रतिरोदार्थ अस्त्र उठाते हैं । इनके लिए युद्ध वह  स्थिति है जो सत्य और न्याय के सारे द्वार बंद कर देती है । वह स्थिति थोप दी जाती है और जिसे राग द्वेष रहित होकर हटाने के सिवा और कोई दूसरा चारा नहीं है ।  यह साधन हीन का साधन संपन्न से संघर्ष है ।  इसकी चरम परिणति तब दिखाई देती है जब रावण रथारूढ़ होकर युद्ध भूमि में आता हे । और साधन हीन राम रथ की कौन कहे तन - पद - प्राण तक के बिना उसका सामना करने के लिए सन्नद्ध होते हैं । युग - संशय के रूप में विभीषण इस संघर्ष की प्रकृति और परिणाम के प्रति आशंकित होकर धीरज खो बैठते है । राम के इस कार्य के संघर्ष के क्या मायने हैं । वह समझ नहीं पाते ।  तुलसीदास के राम भरत सीता आदि चरित्रों में स्पष्ट रूप से लोक साधना का प्रतिमूर्तन भी देखा जा सकता ह

: स्त्री :

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               -------   #   -------- किसी भी समाज के सुसंस्कृत और विकसित होने की कसौटी स्त्री हो सकती है । इस तरह साहित्य में भी समाज की उन्नति अवनति का प्रतीक बन जाती है ।  वैदिक काल में स्त्री को एक सशक्त व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाता था । इतना ही नहीं धार्मिक अनुष्ठान से लेकर राजनीतिक कार्यों में भी स्त्री की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी ।  परंतु कुछ समय के पश्चात स्त्री को शारीरिक दुर्बलता के कारण समाज में उसका स्थान गौण होने लगा । पुरुष ने भी उसकी इस गिरती हुई दशा को सुधारने का प्रयत्न नहीं किया ।  पुरुष ने मात्र देवी बनाकर कर तथा पवित्रता का स्वांग भरकर कर या कहीं मनोविनोद की वस्तु बनाकर स्त्री जाति को जड़ बना दिया । प्रत्येक युग की आवश्यकता के अनुरूप तथा समाज को अनुशासित करने की दृष्टि से कुछ नियम या उप नियम बनाए जाते रहे हैं ।  जो कालांतर में परंपरा या रूढ़ि के रूप में विकसित हो जाते हैं नए युग नए मूल्यों की स्थापना के साथ ही रूडी परंपरा का विरोध भी होने लग जाता है । सामाजिक  विकृतियां  भी कभी कभी व्यक्ति में अलगाववादी विचारधारा को जन्म देने में स

स्त्री

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जीवन में सब कुछ इतनी सुगमता और सरलता से चलता रहे । यह हमेशा नहीं होता है क्योंकि जिस प्रकार हर दिन के बाद काली रात अवश्य आती है ।  ठीक उसी प्रकार सुख के बाद दुख भी आता है और प्रत्येक व्यक्ति को सुख और दुख का सामना जीवन में करना ही पड़ता है । The earth is a stage man is actor and god is director .  यानी यह पृथ्वी रंगमंच है मानव अभिनय करता है और प्रभु कहे ईश्वर कहें या अल्लाह कहें वही सब को निर्देशित करने वाला है समाज की गतिविधियों को देखते हुए मशहूर लेखक व नाटककार विलियम शेक्सपियर की सदियों पहले की गई यह टिप्पणी आज के आधुनिक समाज में भी एकदम सटीक बैठती है ।  आधुनिक समाज में शिक्षा का स्तर होने के कारण स्त्रियों में काफी जागरूकता आई है । उन्होंने अपनी खुद की पहचान और मनोबल शिक्षा से ही प्राप्त किया है । जिससे एक बहुत बड़ा बदलाव हमें देखने को मिलता है ।  इस बात को आधुनिक पुरूष भी समझ रहा है और आधुनिक  स्त्रियों को समाज में सुरक्षित रखने के लिए बहुत ही कड़ी भूमिका निभानी पड़ रही है ।  क्योंकि वर्तमान समय में भी पुरुष को आजादी स्त्री को देने के लिए तैयार नहीं है । जो स्वयं पुरु

शिक्षा और राजनीति

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पिछले कुछ वर्षों से हमारे देश के सामने जो भी बहुत पेचीदा समस्याएं आई है । उनमें हमारे विश्वविद्यालय भी रहे हैं हड़ताल ,  झगड़े ,  गोली ,  लाठियां ,  गाली गलोज ,  तिहार बाजी मुकदमें जांच कमीशन और और न जाने क्या क्या  ,,,,???  एक जमाना था जब विश्वविद्यालय देश के सांस्कृतिक जीवन के पवित्रतम तीर्थ माने जाते थे और आज मधुमक्खियों के छत्ते मधु कम होता जा रहा है ।  संगठन और समस्याएं बढ़ती जा रही है ,,,,  कारण ढूंढिए  तो ले देकर एक ही बात ---- की कुछ अध्यापक शोध अध्ययन पठन-पाठन की अपेक्षा विश्वविद्यालय की राजनीति और अपने स्वार्थ साधन में ज्यादा रुचि लेते हैं  । हमारे देश की समस्याओं में विश्वविद्यालयों में भी राजनीतिक दांवपेच हड़ताल गोली आदी हो रहे हैं ।  इन विश्वविद्यालयों में विभिन्न प्रकार की समस्याओं को बढ़ाने में अपना योगदान दिया है ।  अध्यापक भी राजनीति और अपने स्वार्थ साधन में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं ।  आशय है कि कार्य करने वाले व्यक्तियों तथा कर्मचारियों की संख्या तो निरंतर बढ़ रही है परंतु उनकी कार्य क्षमता उस अनुपात में नहीं बढ़ रही । वह संगठन बना लेते हैं ,,,, मांग पूरी ना होने पर

मापदण्ड ,,,,

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प्रत्येक सभ्यता के कुछ मूलभूत मूल्य और विश्वास होते हैं ।  जिनकी भित्ति पर सामाजिक संरचना निर्मित होती है  । स्त्री और पुरुष के संबंधों की नैतिक मर्यादा और संस्थानात्मक परिणति या उन मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है और उस समाज की व्यवस्था का परिचय भी देती है ।  स्त्री और पुरुष के संबंध सर्वकालिक और सर्वदेशिक होते हुए भी प्रत्येक समाज में प्रत्येक युग में अलग-अलग मूल्यों का रस व्याप्त रहता है । उन संबंधों की आकृतियां अनेक है उनके कलेवर और उनकी साज-सज्जा में आंचलिक विचित्रताये भी है उनकी शैली और शब्दावली भी भिन्न है ।  समाज व्यवस्था का आधार सभ्यता के कुछ मूल्य और विश्वास है ।  जो स्त्री-पुरुष संबंधों की मर्यादाओं और संस्थानात्मक परिणीतियो प्रतिबिंबित होते हैं । यह स्त्री पुरुष संबंध सर्व देशिक और सार्वकालिक होते हुए भी युग और समाज के अनुरूप कुछ भिन्नता रखते हैं । इसलिए और पुरुष के संबंधों की नैतिक मर्यादाऐ उनके मूल्यों प्रतिबिंब है जो कि समाज व्यवस्था का परिचय प्रदान करती है ।  स्त्री और पुरुष के प्रकृति प्रदत भेद को भी स्पष्ट किया जा सकता है कि पुरुष के रसास्वादन उसकी वेशभूषा स्त्री से

भ्रांति ,,,,

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सांस्कृतिक विपन्नता का पहला कारण तो झूठी धार्मिक जिंदगी है और दूसरा कारण है भाषा की प्राचीर जो इन ऊंचे वर्ग और साधारण आदमी के बीच खड़ी कर दी गई है ।   इनका मूल्य बोध एक धुली हुई स्लेट है जिस पर जो अंक चाहे आप चढ़ा दीजिए या फिर उसे मिटा दीजिए । सबसे अधिक सोचनीय बात यह है कि इनमें किसी भी संस्कृति के प्रति निष्ठा तो दूर  औपचारिक आदर का भाव तक नहीं है ,, और ना किसी प्राचीन या अर्थहीन मूल्य को निरस्त करने का ही मनोबल है  ।  कहने के लिए ऐसे लोगों में धार्मिकता का तो बाना मिलेगा गाए - बगाहे पूजा पाठ भी होता मिलेगा,,,, पर धर्म इनके घरों में आकर इतना संदर्भ हीन हो जाता है कि मन करता है कि कहें कि आप नास्तिक अनुष्ठान विरोधी होते तो अधिक अच्छा होता कम-से-कम तब आपके ईमानदार होने की संभावना अधिक थी । इस पूरे वर्ग में योग ,  तंत्र , अंतश्चेतना और अति मानस से संबद्ध वांग्मय की सुंदर जिल्दें दिखेंगी । ,,,,,भीतर शायद पन्ने अगर छापते समय कटने से रह गए हो तो वैसे ही बरकरार भी हो । परंतु बौद्धिक मुखोटे के नीचे चेहरे पर हर देवता का भूत प्रेत का अघोरी ,  औघड़ , का डाकिनी ,  शाकिनी का भय मुर्दनी बनक

हिंदी भारत के ह्रदय की भाषा है ,,,,!!

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निसंदेह मनुष्य में पशु सुलभ आदिमानव मनोव्रतिया जीवित है उनके अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है ।  थोड़ी सी भी उत्तेजना पाकर वे झनझना उठती है  । साहित्यकार को इनकी उत्तेजना जगाने में विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता ।  अगर इन आदि मनोवृतियों को ही उपजीवी बनाकर मनुष्य अपना कारोबार प्रारंभ कर दे । तो उसे बहुत प्रयास नहीं करना पड़ेगा । परंतु संयम और निष्ठा धैर्य और दृढ़ता साधना से प्राप्त होती है ।  उसके लिए श्रम की जरूरत होती है । साहित्यकार को अविचलित चित् से उन गुणों की महिमा समाज में प्रतिष्ठित करनी है ।  जिन्हें मनुष्य ने वर्षों की साधना और तपस्या से पाया है जिस स्वाधीनता के लिए हम दीर्घकाल से तड़प रहे थे वह हमें मिल गई है ।  साहित्यकार ने इसके आवाहन में पूरी शक्ति लगा दी थी । आज उसे अपने को महान उत्तरदायित्व के योग्य सिद्ध करना है । मनुष्य को अज्ञान , मोह को कुसंस्कार और परमुखा - पेक्षिता  से बचाना ही साहित्य का वास्तविक लक्ष्य है । इससे छोटे लक्ष्य की बात मुझे अच्छी नहीं लगती ।  इसी महान उद्देश्य कि यदि हिंदी पूर्ति कर सके तभी वह उस महान उत्तरदायित्व के योग्य होगी जो इतिहास

तू मर क्यों नहीं जाती ,,,,

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तू *मर* क्यों नहीं जाती ,,,,,,  यदि पशु बल का ही नाम बल है , तो निश्चय ही स्त्री में पुरूष की अपेक्षा कम पशुत्व है ।  लेकिन अगर बल का अर्थ नैतिक बल है तो उस बल में वह पुरुष की अपेक्षा इतनी अधिक महान है । क्यों कि जिसका कोई नाम नहीं हो सकता । यदि अहिंसा मानव जाति का धर्म है तो अब मानव जाति के भविष्य की निर्मात्री स्त्री ही मानी जानी चाहिए ।  मानव के हृदय पर स्त्री से बढ़कर प्रभाव और किसका है ,,,,, ।।  यह तो पुरुष ने स्त्री की आत्मा को कुचल रखा है यदि उसने भी पुरुष की भोग लालसा के सामने अपने आप को समर्पित ना कर दिया होता तो सोई हुई शक्ति के इस अथाह भंडार के दर्शन का अवसर संसार को मिल जाता ।  स्त्री पुरुष से अपने खोए हुए अधिकारों तथा अस्तित्व को प्राप्त कर लेगी तो वह पुरुष के समान अवसर पा लेगी  । ऋषि कवि ने कहां है कि जहां-- स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं ,,,, कविवर जयशंकर प्रसाद ने --- नारी तुम केवल श्रद्धा हो --- कहकर उसे देव तुल्य पात्र माना है । किंतु स्त्री की दयनीय दशा का चित्र स्वयं राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने  ---आंखों में पानी भरे ---- अबला की कह