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Showing posts from June, 2018

स्त्री विमर्श

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---------------------------- " भारतीय दंड संहिता का ,       मैं जग को बोध  कराऊँगी ,      सम्मान करें सब वनिता का ,      सच्ची इंसानियत सिखाऊंगी  ।। "  हिंदू धर्म के  व्याख्याकार मनु महाराज एक पुरुष है जिन्होंने स्पष्ट कहा था कि स्त्री को बचपन से पिता पर जवानी में पति पर और बुढ़ापे में अपने बेटों पर निर्भर रहना चाहिए ।  पति चाहे अगअवगुणी , कामी ,  दुराचारी अथवा पागल ही क्यों ना हो पर पत्नी द्वारा उसे ईश्वर के समान पूजा करनी चाहिए ।  मनु की इन्हीं बातों को विश्वास और हिदायतों को चाहे तुलसीदास हो रामकृष्ण हो या शंकराचार्य जैसे धर्म प्रचारक हो अथवा कोई भी हिंदू कानून या न्याय हो आज तक न केवल मानता है बल्कि उसे और भी पुख्ता करता आया है ।  धर्म चाहे जो भी हो सभी धर्मों में स्त्री को पुरुष से नीचे समझा गया है ।  कुरान शरीफ के अनुसार स्त्री को पुरुष के कहे अनुसार चलना चाहिए  , उसे आज्ञाकारी होना चाहिए  , उसे अपने अंगों को छुपा कर रखना चाहिए  , और पति की सेवा करनी चाहिए और यदि इसका पालन न करें तो पुरुष को अधिकार है कि उसे स्त्री को डांटे मारे सजा दे और इसके बाद भी ज

ईर्ष्यालु स्त्री

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 स्त्री अधिकांश तथा अन्य स्त्रियों के प्रति असहिष्णु होती है ।  चाहे परस्पर कोई भी रिश्ता हो कहीं ना कहीं कभी ना कभी वह ईर्ष्यालु हो उठती है ।  क्योंकि स्त्री में अपनों के प्रति कोमलता ,  मधुरता और त्याग की भावना निहित रहती है ।  स्त्री जब विवाहित होकर आती है तो उसके आसपास अपरिचितों की भीड़ लगी रहती है ।  हालांकि वह गृह स्वामिनी पद की दावेदार होती है तथा गृह लक्ष्मी के रूप में उसका स्वागत भी किया जाता है ।  स्त्री अपने प्रेम  , सहानुभूति एवं समझौतावादी स्वभाव से  परिवार में सभी रिश्तो के माध्यम से सेतु भी बनाती है  । रिश्ता चाहे सास ननंद का हो या देवरानी-जेठानी का वह अपने स्नेह अनुराग से सींचती  है ।  कहीं कहीं कुछ जिद्दी स्वभाव की स्त्रियां भी होती है जिन से परिवार में द्रोह की संभावना भी हो जाती है ।  वर्तमान समय में ऐसे बिखरे परिवार हमें यत्र-तत्र दिखाई दे जाते हैं जिनमें स्त्री स्वयं की इच्छाओं की पूर्ति के लिए रिश्तो का भी त्याग कर देती है ।  उनकी नजर में वह सिर्फ उसका पति ही उसका परिवार होता है सास ननंद देवरानी-जेठानी सभी रिश्तो को वह अपने परिवार के अंतर्गत नही

सामाजिक सत्यता

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" तू औरत है तो औरत बन कर रह ।" कहने वाला पुरूष ये भूल जाता है  कि औरत भी इंसान हैं ।।  हमारे समाज में उस स्त्री का जो किसी कारणवश पति का घर छोड़ देती है या फिर पति के द्वारा छोड़ी गई है....l  बहुत ही ही दृष्टि से देखी जाती है |  पति चाहे कैसा भी दुर्व्यवहार करता हो ,  उसको नशाखोरी की आदत हो  , अन्यत्र अनुरक्त हो ,  लालची विलासी हो  , ,,, स्त्री को उसकी दहलीज से चिपक कर बैठे रहना चाहिए ,,, ।।  स्त्री को मानसिक या शारिरिक यातनाएं देना , तिरस्कार पूर्ण व्यवहार करना ,  पैर की जूती समझना तथा विभिन्न प्रकार से स्त्री का उत्पीड़न करना  ।।। लेकिन इसके बावजूद यदि स्त्री पुरुष का त्याग कर दे तो ,,,,,,  परित्यक्ता शब्द स्त्री के लिए गाली जैसा है । दृष्टिकोण चाहे जो भी रहा हो  ,,,, कलंकित केवल वही कहलाती है ,,,,,  क्यों ,,,,??  दूसरी ओर तो कुछ स्त्रियां ऐसी भी है जो संतुष्ट या प्रसन्न नहीं रहती और अपने कामवेग के समक्ष विवश होकर   मर्यादाओं को त्यागकर यौन   उच्छृंखलता की ओर अग्रसर भी हो जाती है ।।  नारी की लज्जा शीलता  , नारी के संस्कार ही  प्रथम तो है तो उसके आड़े हैं

सुंदरता

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 खूबसूरती अथवा सुंदरता का दबाव भले ही पुरुष समाज की तरफ से आया हो ,,,, लेकिन स्त्री इसी उधेड़बुन में  अपना बड़ा समय लगा देती है अपने कपड़े  , जूते  , श्रृंगार सब के पैमानों को वह तय करती रहती है जिससे उसकी सुंदरता में वृद्धि हो जो कहीं-कहीं तो स्त्री  को सुंदर बनाने की बजाय फूहड़ ही बना देते हैं ।  वह सुंदर बनाने वाले माध्यमों प्रसाधनों को खरीदने पर जोर देती रहती है  ।  अथवा इसके पीछे पागल हो जाती है  ।  पुरुष को रिझाने अथवा आकर्षित करने के लिए स्त्री बड़ी-बड़ी कंपनियों के सौंदर्य प्रसाधन खरीदने के लिए लालायित भी  रहती है ।  आज हमारे देश की अधिकतर स्त्रियां यह लड़कियां जिस तरह से जी रही हैं यह सोचने का प्रश्न है ।  क्या खेत कारखानों में काम करने वाली मजदूर महिला सुंदर नहीं है   ??  क्या उसके श्रम के पसीने से निकलने वाली गंध किसी सेंट से कम है ??  क्या काम करते उसके मजबूत हाथ किसी मॉडल के हाथ से कम सुंदर हैं ??  वास्तविक सुंदरता  स्त्री के शरीर ,  अंग - प्रत्यंग में नहीं बल्कि उसके श्रम  , मेधा एवं संघर्ष में होती है  ।  उसका ही सम्मान होना चाहिए तथा महिला को

स्त्री -- प्रजीवन शक्ति है ।

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 प्राचीन शक्ति स्रोत में यह कहा गया है कि ---       स्त्रये देवः   स्त्रये   प्राण : अथार्त  नारियां देव है नारियां स्वयं जीवन है ,,,, ।।   स्त्री से भरा जीवन शक्ति है इसकी तो स्वयं प्रकृति है लेकिन दुख की बात यह है कि  प्रकृति के विनाश का पहला शिकार स्त्री ही होती है  ।। कुदरत ने उसे अपनी सृजन क्षमता ,,,, अपना होने का वरदान भेजा है ।। स्त्री को अपनी  क्षमता व प्रकृति के दिए इस वरदान को पहचानना होगा ।।  वर्तमान परिस्थितिया इससे भिन्न है ,,, यह  एक विचारणीय प्रश्न भी है कि स्त्री ने अपनी समानता व स्वतंत्रता को पाने के लालच में  कही - कही दूसरी स्त्री के अधिकारों का हनन भी कर दिया है ।। घर से लेकर बाहर तक महत्वाकांक्षी स्त्री अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए दूसरी स्त्री की स्वतंत्रता वह इच्छाओं को कुचलती हुए आगे बढ़ जाती है ।।  पुरुष प्रधान समाज होते हुए भी कहीं-कहीं  पुरुष को माध्यम बना   महत्वाकांक्षी स्त्री -- समानता व आदर्श की  , पारिवारिक कायदों की  , न्याय की बातें ,  जोर-शोर से करती नजर आती हैं ।।  स्त्रियों का दृष्टिकोण वहीं तक विकसित होता है  कि किस

संसार मे अधिकार प्राप्त करना बहुत कठिन है ,,,,,विशेषकर स्त्री के लिए

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" नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्     देवीं सरस्वतीं चैव ततो जय मुदिरचेत  ।। "  महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढ़ता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है  बल्कि हिंदू धर्म और वैदिक परंपरा का भी सार है ।  महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथम पर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है --- "  जो यहां महाभारत में है वह आपको संसार में कहीं ना कहीं अवश्य मिल जाएगा जो यहां नहीं है वह संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा । "   रीति-नीति से उपजे यह कथा,,,, एक त्रासदी जो हर मोड़ पर मानवीय मनोविज्ञान तरह संवेदना का सशक्त चित्रण करती है ।  संसार में अधिकार प्राप्त करना बहुत कठिन है विशेषकर स्त्री के लिए ।  समाज में उसका ना कोई अस्तित्व है और ना गौरव ।  वह तथाकथित शील मर्यादा और परंपराओं का बोझ ढोते - ढोते अपने जीवन को समाप्त कर देती है ।  महाभारत का एक ऐसा ही पात्र है  "द्रोपदी " ।  भारतीय संस्कृति में अगाध आस्था रखने वाले विद्वानों का ध्यान  कभी    इस पात्र की पीड़ा की ओर गया ही नहीं ।  महाभारत का यह पात्र स्त्री की विवशता से

काश -- मैं पंछी होती ,,, मैं उड़ पाती !!

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महाभारत में व्यास जी ने कहा है कि कन्या ही वह आधार है जिससे सारी कामनाये जीवन का उत्कर्ष पाती हैं ----   "यस्मात काम्यते सवान कर्मेधारतोश्य                               भगिनि । तस्मात कन्येह सु श्रोती  , स्वतंत्रता                              वर वर्णिनी ।। कंस के घर पैदा हुई कन्या ,, कंस के संहार का आधार है  ,,, वही लाज बचाने के लिए द्रौपदी का भरी सभा मे अनादर भी दुखद गाथा है जो स्त्री जीवन से जुड़ी है ।  कुछ काव्य पंक्तियों के माध्यम से स्त्री समाज को ,,, एक कवियत्री संबोधित करते हुए संदेश देती है ---       "देवियों क्या पतन अपना देखकर         नेत्र से आंसू निकलते हैं या नहीं  ? "  कुछ साल पहले तक महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर उनके सशक्तिकरण , उनकी उपलब्धियों ,  और संघर्षों पर  लिखित साहित्य और अवधारणाओं पर गंभीरता से चर्चा नहीं की जाती थी ।  उन्हें घर के सीमित दायरे की सीमित समस्याओं के घेरे में रचा लेखन मानकर या घर बैठी सुखी महिलाओं का लेखन मानकर गंभीरता से नहीं लिया जाता था ।  स्त्रियों पर जो भी चर्चाएं हुई है पुरुषों ने ही की चाहे वह सामा

स्त्री न तो देवी है और न ही मायाठगिनी ,,,,

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" यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता : " । यत्रेतास्तु पुज्यन्ते सर्वस्त त्राफला : क्रिया : ।।          मनुस्मृति  3/57 स्मृति कारो ने नारी के विषय में जो उदगार व्यक्त किये है ,,, उनकी प्रशंसा न केवल भारतीय विद्वानों ने अपितु पाश्चत्य दार्शनिकों ने भी की है  ।  नीत्शे ने लिखा है कि --- मनुस्मृति को छोड़ कर मेरे देखने मे ऐसी कोई पुस्तक नहीं आई जिसमें इतने ममतापूर्ण ओर दयापूर्ण उदगार हो । "    "यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते ,,,,,,  बतलाने वाले मनु ने पत्नी - शासित  ,  भार्या - वश  , एवं स्त्री विजित पुरूषों की बड़ी निंदा की है और कहा है कि ऐसे पुरूषों के यहाँ तो देवता भी " हवि " ग्रहण नहीं करते । स्मृतिकारों में से अधिकतर ने बात जोर देकर कही है कि स्त्री स्वतन्त्र रहने योग्य नहीं है ----  ( मनुस्मृति , 9/ 2 / 3 )  " मनुस्मृति " स्त्री को अपनी मूल पहचान की छूट नहीं देती । जन्म से लेकर मृत्यु तक वह पिता , पति , ओर संतान के संरक्षण में ही सुरक्षा और सम्मान की पात्र है। नारी के मातृस्वरूप  के  प्रशंसक  जगद्गुरू शंकराचार्य जी न

स्त्री अपने स्वाभिमान की रक्षा करना जानती है ,,,

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देह से परे भी है,,  मेरा वजूद  ,, कभी देखो अगर ध्यान से तुम ,,  एक मित्र की तरह एक साथी की तरह,,  एक इंसान की तरह ,,  ऐसा कोई युग नहीं रहा जिसमें वह बर्बर प्रश्नों से स्त्री नहीं घिरी और तमाम लांछन और अपमानों के बीच उसने अपनी जीवन यात्रा पूरी नहीं की हो  ।  स्त्री की सामाजिकता का सबसे संवेदनशील बिंदु है उसका चरित्र ।  इतिहास में यही प्रश्न सीता को लेकर खड़ा हुआ था सीता ने नारी के रूप में कितने अवतार लिए लेकिन पुरुष समाज आज भी धोबी दृष्टि से मुक्त नहीं हो पाया है ।  समाज तब भी था जब एक राजपरिवार के वृद्ध जन गुरुजन सभी जन सभी थे और द्रोपदी अपनी लाज बचाने के लिए किसके सामने नहीं रोइ  ,  गिड़गिड़ाई  ,,, जब राजपरिवारों की ऐसी स्थिति थी तो आम नागरिकों में स्त्री कितनी प्रतिबंधित रही होगी यह सोचा जा सकता है ,,,, !!  वर्तमान सामाजिक संदर्भ में नारी की दशा और दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है ,,,  लेकिन समूचे प्रकरण में देशकाल और परंपराओं का सम्मान बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है ,,,  तभी नारी की सनातन गरिमा सुरक्षित रह सकती है  ।  चूल्हा-चौका से लेकर साहित्य तक ,  राजन

मैं स्त्री हूँ ,,,

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जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है ,,,    "मैं रति की प्रति कृति , लज्जा हूँ , मैं शालीनता सिखाती हूँ  । आज फिर से यही प्रश्न मेरे समक्ष उभर आया है यूं तो स्त्री के अनेक रूप हैं और मैं जब जब भी उसके बारे में सोचती हूं तो ऐसा लगता है कि मैं उसके किस रूप की बात करूं ,,, ।।  मैं ही वही स्त्री हूं जो प्राचीन काल में ज्ञान व विद्वता का कोष थी ।   मैं ही याज्ञवल्क्य  जैसे ऋषि यों को टक्कर देती आई हूं ।   वह मैं ही थी जो अपने पति के द्वारा शापित होकर एक कुरूप संतान को जन्म देने पर बाध्य हुई थी ।  मैंने अपने हर रूप को साकार जिया है ।  मैं वही सीता हूं जिसने राम की मर्यादा पर कोई आंच ना आए वनवास को स्वीकार कर लिया था,,,, ।  वह मेरी ही अगाध आस्था थी की कुटिया में अभी मैंने राजभवन का सुख पाया था ,,, ।  वह मैं ही थी जिसने गांधारी बनकर पति धर्म निर्वाह करने के लिए स्वयं की आंखों पर पट्टी बांध ली थी,,, । प्राचीन समय में मैं वेद अध्ययन करती थी तथा स्रोतों की रचना भी करती आई हूँ । मैं ही लोपामुद्रा ,,,,  मैं ही घोषा ,,,, मैं ही इंद्राणी थी ,,,।।  परिस्थितियां योग चाहे बदल

स्त्री एक देवी है ,,, जिसकी चाभी पुजारी के हाथों में रहती है ,,,

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 आज के समय में भी समाज में स्त्री होना एक सजा है ।  उसका स्थान देवालयों में स्थापित उस देवी की भांति है जिस की चाबी पुजारी के हाथों में रहती है ।  स्त्री आज के दौर में भी घर की चारदीवारी में कैद है ।  समाज की परंपराएं रीति रिवाज अशिक्षा अज्ञानता रूढ़िवादिता स्त्री को बाहर निकलने से रोकता है ।  पढ़े लिखे   कहे जाने वाले इस सभ्य समाज में भी स्त्री की स्थिति वर्तमान समय में भी ज्यों की त्यों बनी हुई है ।  स्त्री जाति के प्रति हिंसा वर्तमान समय में महत्वपूर्ण चिंतन का विषय है ,,,  नारी विमर्श आंदोलन ,,, पुरुष समाज को चुनौती देते हैं,,, बलात्कार  , दहेज हत्या ,  लिंग जांच  , मादा भूर्ण का गर्भपात ,, यह सभी विषय एक स्त्री  से संबंध रखते हैं और इन सभी विषयों पर स्त्री के दृष्टिकोण से पुरुष समाज को विचार करना चाहिए ।  आज अधिकांश नारी संगठन शहरों के मध्यम वर्गीय शिक्षित औरत तक ही सीमित कर रह गए  हैं ।  आम मध्यम वर्ग की औरत भी ऐसे महिला संगठनों को नहीं जानती है ।  यही नहीं आज का नारी विमर्श सेमिनारों भाषणो तक,,, संगोष्ठियों तक ही सिमट कर रह गया है । आंदोलनों का विफल होना अथवा उ

स्त्री विमर्श

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नरकृत शास्त्रों के सब बंधन है ,  नारी को ही लेकर  अपने लिए सभी सुविधाएं  पहले ही कर बैठे नर  पंचवटी , मैथिलीशरण  भारत में हिंदू धर्म एक महत्वपूर्ण धर्म है हिंदू धर्म में देवियां है जिनकी उपासना होती है ।  राधा कृष्ण का प्रेम हिंदू मानस की सोच का हिस्सा है लेकिन फिर भी प्रश्न यह है कि यह हिंसा कहां से आती है ---  प्रेयसी को , पत्नी को ,  जिंदा जलाने ,  दहेज कम लाने पर प्रताड़ना  , संदेह होने पर हत्या,,, औरत पर घर बाहर की जिम्मेदारी डाल उस को पतिव्रता के कारागार में बंद कर उसकी सारी इच्छाओं का दमन ,,, ।।  वैदिक युग में स्त्रियों को वेदों की शिक्षा दी जाती थी स्त्री पुरुष के कार्यों में कोई भेद नहीं होता था ।  स्त्रियों का समाज में सम्मान होता था ।  वैदिक उत्तर काल में ज्यों-ज्यों समय बीतता गया स्त्रियों की स्थिति भी नीचे सरकती रही ।   स्त्रियों के चरित्र के साथ सवाल जोड़ कर उसे लाजवंती बना दिया गया ।   जहां एक और रामायण कालीन समय में स्त्री को नैतिकता का आदर्श मान लिया गया ।   वह मात्र पुरुषों की दासी बन कर रह गई ।  उसका कर्तव्य केवल पति की सेवा तथा अंध आज्ञा का पालन

नारी विमर्श -- चुनौती

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स्त्री विमर्श ---- स्त्री के अस्तित्व को केंद्र में लाकर उसकी मानवीय गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करने का अभियान है  ।  स्त्री के अस्तित्व पर पितृसत्तात्मक समाज का पुरुष वर्ग स्वयं को स्त्री की तुलना में श्रेष्ठ स्थापित करने के षड़यंत्र रचता रहा है । उसके वास्तविक अस्तित्व को भंग कर उसका दमन करना और स्त्री के लिए समानता और न्याय की सभी सम्भावनाओ को समाप्त करना रहा है  । स्त्री विमर्श का सर्वप्रथम सरोकार पुरुष सत्ता को शक के दायरे में लाना होगा क्यों कि स्त्री पर चिंतन और उसके सभी प्रावधानों ,, तथा नियमों का निर्माण पुरूष ही करते आये हैं  ।   यही वजह थी कि   " सिमोन द बाउवर " अपनी कृति  में स्वयं लिखती हैं --- अब तक औरत के बारे में पुरूष ने जो कुछ लिखा उस पर शक किया जाना चाहिए क्योंकि लिखने वाला न्यायाधीश ओर अपराधी दोनों ही है । स्त्री विमर्श -- एक स्त्री की आत्मचेतना ,, उसके अस्तित्व की पहचान स्थापित करने का समकालीन वैचारिक चिंतन है । जो कि परम्परागत दवाब से मुक्त हो कर उसकी पहचान लिंग रूप में नही बल्कि मनुष्य रूप में प्रस्थापित करने का उद्देश्य है । स्त्री विमर्श